अनिल त्रिवेदी
इंदौर। नईदुनिया
मैं 'श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति', दो बार साक्षी रही हूं उस महापुरुष के आगमन की, जिसे विश्व महात्मा गांधी के नाम से जानता है। उनकी जयंती के मौके पर अपनी यादों के झरोखों में झांककर युवा पीढ़ी को मैं उस महामना की गौरवगाथा सुना रही हूं जिसने मेरी इमारत की इबारत लिखने में संभवतः सबसे अधिक योगदान दिया। 29 मार्च 1918 में उन्होंने मेरा शिलान्यास करने के बाद 20 अप्रैल 1935 में उद्घाटन भी किया। मेरे ही प्रांगण से बापू ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का आह्वान किया। यहीं से उन्होंने घोषणा भी की कि दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार के लिए वे अपने पुत्र देवदास गांधी, हरिहर शर्मा, स्वामी सत्यदेव और ऋषिकेश शर्मा को अलग-अलग राज्यों में भेजेंगे।
बापू का मानना था कि किसी भी राष्ट्र की भाषा, उस राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना और गरिमामय विरासत की संवाहक होती है। इसलिए हिंदी के गौरव और अस्मिता को बनाए रखने के लिए वे सदैव दृढ़ संकल्पित रहे। 1918 में इंदौर में होने वाले आठवें अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन में आने से पहले बापू ने समिति के तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. सरजूप्रसाद तिवारी को पत्र लिखकर उनके माध्यम से विद्वानों से इस सवाल का जवाब मांगा था कि हिंदी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए या नहीं। सभी के समर्थन के बाद ऐतिहासिक अधिवेशन में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की समिति की मांग का समर्थन किया गया। कालांतर में संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकृति प्रदान की।
तीसरे दर्जे के डिब्बे से उतरे बापू
सम्मेलन में शामिल होने के लिए गांधीजी जब ट्रेन से इंदौर पहुंचे तब स्वागत समिति के लोग उनके प्रथम श्रेणी में होने की अपेक्षा कर रहे थे, लेकिन वे तृतीय श्रेणी के कोच से उतरे। यहां स्वागत समिति के बजाय उन्हें आम लोगों ने घेरकर जय-जयकार शुरू कर दी। योजनानुसार गांधीजी को बग्घी में बैठाकर जुलूस निकाला जाना था, लेकिन कॉलेज और स्कूलों के उत्साही छात्र बग्घी के घोड़े खोलकर खुद बग्घी खींचने लगे। बापू ने मना किया मगर छात्र नहीं माने। फिर तय हुआ कि छात्र सौ कदम बग्घी खीचेंगे। फिर घोड़े जोत दिए जाएंगे। ये दर्शाता है कि उस दौर के युवाओं के मन में गांधीजी की छवि कैसी थी।
सहभागी बने कस्तूरबा और शंकराचार्य
वरिष्ठ साहित्यकार सूर्यकांत नागर बताते हैं कि 1918 में गांधीजी के साथ कस्तूरबा और करवीर पीठ के शंकराचार्य भी आए थे। एडवर्ड हॉल (वर्तमान गांधी हॉल) में उन्होंने साहित्य प्रदर्शनी का उद्घाटन किया और बिस्को पार्क (वर्तमान नेहरू पार्क) के कार्यक्रम में शामिल हुए। शाम 7.30 बजे शुरू हुई विषय निर्वाचनी समिति की बैठक रात 1 बजे तक चली और गांधीजी सभी कार्यक्रमों में उपस्थित रहे।
सोने-चांदी के बर्तन और हिंदी का संवर्धन
हिंदी साहित्य समिति के प्रधानमंत्री प्रो. सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी के मुताबिक गांधीजी को सर सेठ हुकमचंद ने सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन कराया था। तब गांधीजी ने कहा था- मैं जिस बर्तन में खाता हूं, उन्हें साथ ले जाता हूं। सेठ हुकमचंद की सहमति के बाद उन्होंने कहा- इन बर्तनों की नीलामी से प्राप्त रकम का उपयोग हिंदी के संवर्धन के लिए किया जाएगा। गांधी जयंती के शताब्दी वर्ष के मौके पर रवींद्र नाट्यगृह में हुए एक कवि सम्मेलन में उस दौर के चर्चित कवि रामकुमार चतुर्वेदी 'चंचल' ने एक कविता सुनाई थी। 'सदियों के तप का मूर्तजन्य फल थे, गांधी युग के मरु में गंगा का जल थे' मुझे लगता है कि ये दो पंक्तियां गांधीजी की जीवनयात्रा का दर्पण हैं।
हिंदी साहित्य समिति में 'गांधी विद्यापीठ'
90 साल पुरानी साहित्यिक पत्रिका 'वीणा' के संपादक राकेश शर्मा बताते हैं कि 1935 के सम्मेलन में उभरे स्वर इस ओर स्पष्ट संकेत दे रहे थे कि हिंदी के वैज्ञानिक पक्ष को भी समझा जाए और इसे अधिक सामर्थ्यवान बनाया जाए। इसी सम्मेलन में विज्ञान परिषद् के अध्यक्ष डॉ. गोरखप्रसाद ने वैज्ञानिक शब्दकोष की योजना पेश की थी। इस अधिवेशन की बचत से ही गांधीजी ने वर्धा में 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' की स्थापना का सुझाव रखा था, जिसकी जिम्मेदारी जमनालाल बजाज को सौंपी गई थी। गांधीजी के इसी अनुराग को देखते हुए समिति के हिंदी विद्यापीठ का नामकरण 1948 में 'गांधी विद्यापीठ' के नाम से किया गया, जिसमें किसी जमाने में हजारों छात्र-छात्राएं पढ़ते थे।
फोटो :
- 1918 के अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन में गांधीजी
- 1935 के अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन में गांधीजी
- मध्य भारत हिंदी साहित्य में लगा काठियावाड़ी वेशभूषा में गांधीजी का चित्र
- 1935 में समिति के तत्कालीन प्रधानमंत्री जौहरीलाल को लिखा महात्मा गांधी का हस्तलिखित पत्र