Indore Ishwar Sharma column : ईश्वर शर्मा, इंदौर (नईदुनिया)। 'कालो न यातो वयमेव याता:"। इस संस्कृत सूक्ति का अर्थ कुछ यूं है- 'मनुष्य समझता है कि वह समय काट रहा है, किंतु सच्चाई यह है कि वह समय को नहीं अपितु समय उसे काट रहा है। आसान भाषा में समझें तो कुछ यूं कि रोज एक दिन बीतता है और उस दिन में आदमी के जीवन का एक दिन कम हो जाता है। मनुष्य है कि इस सच को समझ ही नहीं पाता। बीते दिनों मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति मंत्रालय से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ यह सूक्ति सच साबित हो गई। ये अधिकारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। हुआ यूं कि भोपाल में पदस्थ रहे ये महानुभाव जब पद पर थे, तब जमाना कदमों में झुक-झुक जाता था, किंतु सेवानिवृत्त होने के बाद से कोई पूछता तक नहीं। अब फेसबुक पोस्ट पर 15-20 लाइक ही आते हैं तो उन्हें समझ आता है 'कालो न यातो वयमेव याता का अर्थ।
हे हिंदीप्रेमियों...अत्यंत प्रसन्न होने के पहले तनिक ठहरिए
हिंदी के लिए इन दिनों चहुंओर सकारात्मक और गुडी-गुडी माहौल है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बीते दिनों भोपाल पहुंचे और चिकित्सा शिक्षा की पढ़ाई हिंदी में करवाने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की। किंतु हे हिंदी प्रेमियों, अत्यंत प्रसन्न होने के पहले तनिक ठहरिए। वस्तुत: बिना छने कुछ ऐसी खबरें आ रही हैं कि चिकित्सा शिक्षा की जिन किताबों का हिंदी में अनुवाद हुआ है, वह बहुत औसत, भद्दा और घटिया हुआ है। ऐसा कि डाक्टर उस अनुवाद को पढ़ लें तो सिर पीट लें और मरीज पढ़ ले तो स्वर्ग सिधारना अधिक पसंद करे। दरअसल, हिंदी अनुवाद का यह काम जिन शीर्ष अधिकारियों के जिम्मे था, उन्होंने इसे पीडब्ल्यूडी की फाइल की तरह सरकारी ढर्रे में निपटा दिया। अब अंदरुनी खबर है कि सरकार अनुवाद का काम फिर से करवा रही है, ताकि विद्यार्थी कठिन और उबाऊ भाषा देखकर कहीं बिदक न जाएं।
यह आधुनिक दौर में व्यंग्य लेखन का स्वर्णिम कालखंड है
महान व्यंग्य लेखक शरद जोशी और हरिशंकर परसाई के कालखंड को व्यंग्य लेखन का स्वर्णिम काल माना जाता है। किंतु मुझे कहने दीजिए कि वर्तमान कालखंड भी कुछ इस तरह व्यंग्य कह, रच, गढ़ रहा है कि इसका दावा भी स्वर्णिम हो जाने का ही है। पद्मश्री डा. ज्ञान चतुर्वेदी से लगायत वरिष्ठ व्यंग्य लेखक प्रेम जनमेजय तक अपनी शैली, कहन और भाषा में जो कह रहे हैं, वह अपने समय का दस्तावेज है। पेशे से शरीर के और लेखन से मन के चिकित्सक ज्ञान जी ने तो हालिया दौर में ऐसा और इतना कुछ रचा है कि वे अपने समय से कहीं आगे की बात कहते हुए से लगते हैं। उनके लिखे पर तमाम तरह के पुरस्कार, सम्मान व फिल्मों के अनुबंध न्योछावर होने के बाद अब पीएचडी भी हो रही है। पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ ने डाक्टर साहब के साहित्य में यथार्थवाद पर शोध किया है। लेखन पर शोध हो तो उसे स्वर्णिम न कहें तो और क्या कहें।
गाय-बैलों के गले में बंधे घुंघरू सुन याद आए नंदाजी-भैराजी
वो भी एक जमाना था, जब दिनभर खेतों में काम करके या अपनी दुकान-कारोबार से फारिग होकर लोग सांझ पड़े घर लौटते, तो रेडियो पर नंदाजी-भैराजी उनका स्वागत करते। नंदाजी, भैराजी मीठी मालवी में बात करते हुए रेडियो पर ऐसा समां बांधते थे कि गांव-गांव लोग उनसे दिल जोड़ लेते थे। 'राम-राम हो नंदाजी के संबोधन के साथ शुरू होने वाले कार्यक्रम की शुरुआत में बैलों के गले में बंधी घंटियों और घुंघरू की आवाज का ऐसा तिलिस्म रचा जाता कि लोग सम्मोहित हो जाते। फिर जब तक कार्यक्रम खत्म न होता, तब तक लोग रेडियो के पास से उठते नहीं थे। कई तो चूल्हे के पास अंगारे तापते-तापते रेडियो सुनते और रोटी-बेसन खाते। हाल ही में दीपावली के दौरान जब गांवों में बचे-खुचे गाय-बैलों को सजा-धजाकर उनके गले में घंटी बांधी गई, तो नंदाजी-भैराजी याद आ गए। इस याद ने मानो गांवों की आंख में पुराने वक्त का आंसू ला दिया।