अभिषेक चेंडके, इंदौर। कस्तूरबा ग्राम में कभी 'आवश्यकता है सफाईकर्मी की" का बोर्ड नहीं लगता है। यहां न तो कोई सफाई कर्मी है और न ही कचरा उठाने के लिए कोई गाड़ी आती है।
चाहे परिसर की सफाई हो या शौचालय धोना। सारा काम छात्राएं और शिक्षक मिलकर करते हैं। महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर चलने वाले इस ट्रस्ट के महाविद्यालय में पढ़ने वाली छात्राओं को स्वच्छता के सबक के लिए 20 में से अंक भी मिलते हैं जो बाकायदा रिजल्ट में भी जुड़ते हैं।
हमेशा साफ रहने वाले परिसर, चकाचक क्लास रूम देखकर यह अहसास होता है कि यहां स्वच्छता वाकई संस्कारों में बस गई है। 1946 में महात्मा गांधी ने अपनी पत्नी के नाम पर इस ट्रस्ट का गठन किया था। मध्य प्रदेश के इंदौर में स्थित ट्रस्ट के मुख्यालय में स्कूल, कॉलेज व अन्य कई गतिविधियां संचालित होती हैं।
यहां पढ़ाई के साथ सफाई का सबक जरूरी है। यहां चार सौ छात्राएं रहती हैं। रोज एकत्र होने वाला कचरा परिसर के बाहर नहीं जाता। परिसर में ही उसका निपटारा होता है। कचरे से जैविक खाद बरसों पहले से बनाई जा रही है। ट्रस्ट के खेतों में उसी खाद का उपयोग किया जाता है। पॉलीथिन का उपयोग परिसर में प्रतिबंधित है। सब खादी की थैलियों का इस्तेमाल करते हैं।
सप्ताह में एक दिन सामूहिक सफाई
छात्राएं बताती हैं कि हर शुक्रवार हम दो घंटे सफाई करते हैं। हमारे साथ टीचिंग स्टाफ भी सफाई करता है। पूरा परिसर झाडू से साफ करते हैं और कचरा उठाकर टोकरियों में भरते हैं। छात्रावास और क्लास रूम तो रोज साफ करते हैं। खुद सफाई करने पर कचरा फैलाने की आदत अब किसी में नहीं रही।
शौचालयों से निकलने वाले मल-मूत्र से भी सोन खाद बनाई जाती है। ग्राम की गोशाला से निकलने वाले गोबर को गोबर गैस प्लांट में डाला जाता है। यहां का प्लांट कभी एशिया में सबसे बड़ा माना जाता था। साढ़े चार सौ लोगों का भोजन उसी गैस से रोज तैयार होता है। परिसर के आंतरिक मार्गों के दोनों तरफ रोज चूने की रंगोली भी डाली जाती है।
परफार्मेंस पर अंक मिलते हैं
कॉलेज में प्रसार कार्य का विषय भी रखा गया है। स्वच्छता रखने, फील्ड वर्क के दौरान गांवों में जाकर श्रमदान करने और ग्रामीणों को स्वच्छता के लिए जागरूक करने के लिए 20 अंक भी रखे गए हैं। परफार्मेंस के आधार पर छात्राओं को अंक मिलते हैं। परिसर में सफाई के लिए स्टाफ नहीं है। सब मिलजुल कर सफाई करते हैं।
सूरज डामोर, मंत्री, कस्तूरबा ट्रस्ट