महेश्वर से लौटकर जितेंद्र यादव। हजारों भुजाओं वाले राजा सहस्त्रार्जुन ने त्रेतायुग में हजारों वर्ष तक माहिष्मति पर शासन किया। उनका राज्य सात द्वीपों तक फैला रहा। उन्होंने रावण को छह महीने तक कैद में रखा। परंतु उनकी माहिष्मति (आज का महेश्वर) पथराई आंखों से फिर किसी सहस्त्रार्जुन का इंतजार कर रही है कि वह महेश्वर को उसका वह वैभव लौटाए जो दिग-दिगंत तक फैला था। पर वे सहस्त्रार्जुन तो भगवान परशुराम से हारकर महेश्वर के राजराजेश्वर मंदिर में भगवान शिव के लिंग में ज्योति स्वरूप में समाए हुए हैं। माहिष्मति की उस पहचान को बॉलीवुड ही नहीं, सरकारी तंत्र से लेकर बाजार व्यवस्था तक भी नहीं समझ पा रही है...और सियासतदान बेखबर हैं। इन सभी को जगाने हम यहीं से निकलते हैं माहिष्मती का मर्म जानने...
माहिष्मति में ही चूर हुआ था प्रतापी दशानन का दर्प
महेश्वर के किले के पास नर्मदा किनारे बने राज राजेश्वर मंदिर में लगभग 550 वर्ष से घी के 11 दीपक अखंड जल रहे हैं। मंदिर के महंत चैतन्य गिरि माहिष्मति पुराण के हवाले से बताते हैं कि रावण माहिष्मती से गुजर रहा था, तब उसने नर्मदा किनारे रेत के शिवलिंग बनाकर पूजन शुरू किया। ठीक उसी समय कुछ दूर कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन अपनी रानियों के साथ स्नान और रमण कर रहे थे। उन्होंने अपनी हजारों भुजाओं से नर्मदा का बहाव रोका तो पानी बढ़ने लगा और रेत के शिवलिंग बह गए। क्रोधित रावण ने सहस्त्रार्जुन से युद्ध किया परंतु हार गया। तब सहास्त्रार्जुन ने रावण को कैद कर छह महीने तक माहिष्मति में अपनी घुड़साल में रखा था। किंवदंती है कि कैद के दौरान जब रावण को दरबार में लाया जाता था, तब उसके दस सिरों पर और हाथ में दीपक रख दिए जाते थे क्योंकि सहस्त्रार्जुन को जलते दीपक अत्यंत प्रिय थे।
विष्णु, सुदर्शन चक्र व परशुराम का आना
मालवा-निमाड़ की धरती पर भगवान विष्णु, सुदर्शन चक्र और परशुराम का जो अस्तित्व मिलता है, उसका केंद्र भी माहिष्मति है। राज राजेश्वर मंदिर के पंडित राजेंद्र पुराणिक बताते हैं कि अहंकारवश सुदर्शन चक्र ने भगवान विष्णु से ही युद्ध करने की इच्छा व्यक्त की। विष्णु ने सुदर्शन से कहा कि तुम्हारी इच्छा पृथ्वी पर अवतार लेकर पूरी करूंगा। वही सुदर्शन त्रेता में सहस्त्रार्जुन के रूप में पैदा हुए। उसी कालखंड में विष्णु ने परशुराम के रूप में अवतार लिया। बाद में पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित करने का प्रण लेकर परशुराम ने सहस्त्रार्जुन से युद्ध किया। युद्ध में परशुराम ने सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाओं को एक-एक कर काटना शुरू किया। जब केवल चार भुजाएं बचीं, तब सहस्त्रार्जुन को अपने वास्तविक स्वरूप का ध्यान आया। उन्होंने परशुराम के हाथ जोड़ लिए। उसी समय भगवान शंकर भी प्रकट हुए और सहस्त्रार्जुन को शिवलिंग में दिव्य ज्योति के रूप में समाहित कर लिया। जहां यह घटनाक्रम हुआ, वहीं आज राज राजेश्वर शिव मंदिर है।