MP Diary: डा. जितेंद्र व्यास, इंदौर। करोड़ों लोगों की आस्था के केंद्र भूतभावन भगवान महाकाल की नगरी उज्जैन देशभर में ख्यात है। 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक भगवान महाकाल के दर्शन के लिए हर वर्ष देश-दुनिया से करोड़ों लोग यहां पहुंचते हैं और अपने आराध्य की एक झलक बड़ी जद्दोजहद के बाद भी पाकर निहाल हो जाते हैं। भस्म आरती से लेकर शयन आरती तक और 12 वर्ष में एक बार होने वाले सिंहस्थ से लेकर प्रतिवर्ष शिवरात्रि पर महाकाल दर्शन कर श्रद्धालु स्वयं को कृतार्थ मानते हैं, लेकिन बीते कुछ सालों में श्रद्धालुओं की यह आस्था बार-बार ‘व्यवस्था’ के हाथों ठगी जा रही है।
हाल ही में होली पर गर्भगृह में नियमों को ताक पर रखकर उड़ाए गए गुलाल की वजह से लगी आग हो या फिर महाकाल के दर्शन के लिए पहुंचे श्रद्धालुओं से उज्जैन में कुछ दुकानदारों द्वारा मारपीट, ऐसे प्रकरण दर्शाते हैं कि सुविधाओं और संसाधनों की चकाचौंध के पीछे की हकीकत कुछ और ही है। भक्त हजारों किलोमीटर दूर से उज्जैन की ख्याति का स्मरण कर यहां पहुंचते हैं, लेकिन जब लौटते हैं तो कई लोग अपने साथ अव्यवस्था से उत्पन्न कटु स्मृतियां लेकर जाते हैं। क्षेत्र की दुकान से फूल-माला आदि नहीं लेने पर दुकानदारों के दुर्व्यवहार का शिकार हुआ महाराष्ट्र का परिवार क्या इस सलूक को कभी भुला पाएगा?
साल दर साल भक्तों की भीड़ के आगे बौनी पड़ती व्यवस्थाओं को संवारने के लिए तमाम योजनाएं तैयार होती हैं और उन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार मैदानी कवायद करते नजर भी आते हैं, लेकिन समय-समय पर होने वाली ये घटनाएं स्पष्ट कर देती हैं कि पूरी कवायद कितनी कारगर या असफल साबित हो रही हैं। करीब तीस वर्ष पहले भी महाकाल मंदिर में भगदड़ होने से हादसा हुआ था।
तब भी मंदिर परिसर में कम जगह में अधिक लोगों की मौजूदगी को कारण माना गया। इस बार होली पर गर्भगृह में गुलाल उड़ाने के दौरान लगी आग के मामले में भी एक कारण यही सामने आ रहा है। हालांकि हादसे का मुख्य कारण तो जांच के बाद ही सामने आएगा, लेकिन इतना तय है कि तीर्थ नगरी और मंदिर परिसर की आंतरिक व्यवस्थाओं को चाक-चौबंद करने की महती आवश्यकता है।
इन बिंदुओं पर मनन की आवश्यकता
*ख्याति, प्रसिद्धि और ‘ब्रांडिंग’ से क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मिलती है मजबूती
*बाजारवाद और ब्रांडिंग की कीमत कटु स्मृतियों के रूप में क्यों चुकाएं श्रद्धालु
*व्यवस्था की चूकों को छिपाने या दबाने के बजाय सुधारने पर होना चाहिए जोर
*प्रभु दर्शन से निहाल होने के पवित्र भाव को संजोने पर अधिकारी दें ध्यान
*देश-विदेश में भारत की पहचान को बेहतर करने में उज्जैन के योगदान को बनाएं विशिष्ट
विकास योजनाओं के केंद्र में धार्मिक पर्यटन के औचित्य पर विमर्श जरूरी
महाकाल मंदिर परिसर को नव्य-भव्य स्वरूप देने के लिए पिछली सरकार ने श्री
महाकाल महालोक परियोजना तैयार की थी। 1150 करोड़ रुपये से अधिक की इस महत्वपूर्ण परियोजना में महाकाल मंदिर के आसपास के पूरे क्षेत्र में विकास कार्य करने और बाहर से आने वाले भक्तों के लिए एक से बढ़कर एक सुविधाएं जुटाने की कवायद शुरू की गई थी। पहला चरण पूर्ण होने के बाद 2022 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसका उद्घाटन किया था। श्री महाकाल महालोक के बेहद आकर्षक स्वरूप के बाद यहां पहुंचने वाले भक्तों की संख्या भी प्रतिदिन तीन से चार गुना बढ़ गई।
सोमवार और पर्व विशेष के दौरान तो यह संख्या काफी अधिक होती है, लेकिन इन विकास परियोजनाओं, साज-सज्जा, चकाचौंध करती रोशनी ने भक्तों से आध्यात्म और आस्था के दौरान मिलने वाले सुकून के वे क्षण छीन लिए, जिन्हें प्राप्त करने वे दूर-दूर से यहां पहुंचते थे। सनातन संस्कृति में मंदिर ऐसे स्थल हैं, जहां पहुंचकर व्यक्ति आध्यात्मिक शांति और आनंद प्राप्त करता है। मगर वर्तमान दौर में स्थिति इससे बिलकुल उलट नजर आती है। मंदिर परिसरों के विस्तार के साथ-साथ ही आसपास का पूरा क्षेत्र बाजार की तरह विकसित कर दिया जाता है।
आस्था और शांति के भावों को धार्मिक पर्यटन की बढ़ते प्रभाव ने कदाचित इस तरह ग्रसित कर लिया है कि हर बड़े धार्मिक केंद्र में विकास योजनाएं इसी को केंद्र में रखकर चल रही हैं। यह नव स्वरूप देखने में भले ही आकर्षक और प्रभावी नजर आता हो लेकिन सुरक्षा, आस्था और भक्तों के लिए दर्शन व्यवस्था तीनों ही किसी न किसी बिंदु पर इनसे आहत होते नजर आते हैं। शांति की कामना से यहां आने वाले भक्त पूरे समय व्यवस्था से जूझते-जद्दोजहद करते नजर आते हैं।
उज्जैन में प्रवेश करने के साथ ही पार्किंग तक पहुंचने और फिर वहां से दर्शनों के लिए जुटे भक्तों के मन में शांति और आनंद के भाव तो पता नहीं कब खो जाते हैं। बस किसी तरह दर्शन हो जाएं का भाव लिए वह प्रवेश से निर्गम तक कई बार व्यवस्था-कुव्यवस्था का शिकार बनते हैं और अंतत: एक झलक दर्शन पाकर अपने गंतव्य के लिए रवाना हो जाते हैं। हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी क्या मंदिरों को धर्म स्थल ही बनाए रखने के अपने उद्देश्य में हमें सफलता मिली है? अलसुबह से लेकर देर रात तक भागते-दौड़ते लोग और उनसे अपना ‘अर्थ-तंत्र’ मजबूत करने के लिए किसी भी तरह के व्यवहार से गुरेज नहीं करने वाले वहां के छोटे-बड़े व्यवसायियों के लिए क्या बेहतर व्यवस्था बनाना इतना मुश्किल कार्य है? जवाब है नहीं।
दरअसल परिसर में व्यवस्थाओं को विकसित करने की जल्दी में हमने इस विषय पर विचार ही नहीं किया कि ख्याति, प्रसिद्धि और ‘ब्रांडिंग’ से क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को तो बल मिलता है लेकिन आस्था, श्रद्धा और शांति की तलाश में अपने आराध्य की चौखट पर पहुंचने वाले भक्त यदि इस भाव से विरत होकर लौटते हैं तो ये सारे चकाचौंध निरर्थक ही नजर आते हैं।
गंभीरता से यह देखने की आवश्यकता है कि मंदिरों में जिन भक्तों-श्रद्धालुओं की सुगमता के लिए जो साधन-संसाधन जुटाए जा रहे हैं, क्या वास्तव में उनका लाभ भक्तों को मिल रहा है? यदि नहीं तो इस व्यवस्था पर विचार अवश्य करना चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि ऐसी कौन सी व्यवस्था यहां लागू हो जो वास्तव में धर्म, आस्था, श्रद्धा और शांति के केंद्र में पहुंचने वालों को वाकई इन्हीं भावों का अहसास करवाने में सफल हो।