नईदुनिया प्रतिनिधि, इंदौर। त्योहारी मौसम से पहले शहर के इस कोने में जैसे भारत की आत्मा उतर आई हो। कुछ इसी तरह रचनात्मकता देखने को मिली ग्रामीण हाट बाजार में आयोजित 10 दिवसीय मेले के पहले दिन यहां न सिर्फ रंगों और रोशनी का उत्सव लगा, बल्कि मिट्टी, धागे, बांस, घास, पत्थर और गोबर तक में रची बसी भारतीय सृजनशीलता का जीवंत दस्तावेज था।
देश के सत्तर से अधिक कारीगर अपने साथ वो परंपराएं लाए हैं जो पीढ़ियों से हाथों में आकार लेती रहीं। यह मेला केवल हस्तशिल्प का बाजार नहीं, बल्कि उन कलाकारों का संवाद है जो परंपरा में आधुनिकता का रंग भर रहे हैं। हर स्टाल के पीछे एक कहानी है। कहीं गोबर को कला का रूप मिलता है, तो कहीं खजूर की पत्तियां जीवन का प्रतीक बन जाती हैं।
गोबर से बनाई कलात्मक फ्रेम मिट्टी की गंध और गाय के गोबर की सादगी को कलात्मक रूप देना कोई आसान काम नहीं। सतारा से आए सुनिल सावंत ने और उनके भाई ने खास खास फ्रेम बनाई है। उनकी काउडंग आर्ट जलरोधक और अटूट है। गोबर को राल और गोंद से जोड़कर ऐसा रूप दिया गया है कि धातु जैसी चमक दिखती है।
गोबर को राल और गोंद से जोड़कर ऐसा रूप दिया गया है कि धातु जैसी चमक दिखती है। यह कला प्लास्टिक और धातु की सजावटी वस्तुओं का विकल्प प्रस्तुत करती है, जो परंपरा को नवीनता के साथ सफलतापूर्वक जोड़ती है।
सबसे खास बात यह है कि अंतिम उत्पाद की फिनिशिंग इतनी उत्कृष्ट होती है कि वह धातु की कलाकृति जैसा दिखता है उनकी कृतियां ‘गोमय वस्ते लक्ष्मी’ और ‘कोणार्क चक्र’ दक्षिण भारत के मंदिर , माता सरस्वति सहित भारतीय देवी देवताओं की प्रतिमाएं प्रदर्शित होती है।
पीढ़ियों से चली आ रही विरासत उज्जैन की कारीगर शारदा बाई वर्मा खजूर की पत्तियों का उपयोग करके विभिन्न प्रकार की वस्तुएं बनाती हैं, जो उनकी रचनात्मकता और कौशल का प्रमाण हैं।
उनकी उत्पादों में झाड़ू और गुलदस्तों जैसे उपयोगी सामानों से लेकर मोर, हिरण और मछली जैसे कलात्मक खिलौने, हेयर बैंड, कान की बालियां और सजावटी गुड़िया शामिल हैं। शारदा इस कला में 40 वर्षों से अधिक का अनुभव है और उन्हें राज्य स्तरीय पुरस्कार" से भी सम्मानित किया जा चुका है।
खिलौने में प्रदर्शित किया आदिवासी संस्कृति का रुप देव डाबर बताते है हस्तनिर्मित मोतियों के हार और खास गुड़िया जो सीधे समुदाय के जीवन से प्रेरित हैं।
इन गुड़ियों के पीछे एक सांस्कृतिक कहानी छिपी है। वे पारंपरिक आदिवासी जीवन शैली का चित्रण करती हैं, वेशभूषा जैसे 'घागरा लुगड़ा' और लकड़ी ले जाने वाली महिलाओं को पेंटिंग में प्रदर्शित किया।
यह कला धैर्य और समर्पण की मांग करती है। एक छोटी गुड़िया को बनाने में 2-3 दिन लगते हैं। जबकि एक बड़ी गुड़िया को तैयार करने में 3-4 दिन का समय लगता है।
राजस्थान और मणिपुर की बांस और घास से बनी लेंप हाल्डर और बैग भारत के विभिन्न क्षेत्रों के कारीगर बांस और घास जैसे प्राकृतिक रेशों के साथ नवाचार कर रहे हैं, ऐसे उत्पाद बना रहे हैं जो टिकाऊ और सौंदर्य की दृष्टि से मनभावन दोनों हैं।
राजस्थान के जोधपुर से आए सत्तार, असम से प्राप्त होने वाले एक विशेष मुलायम बांस का उपयोग करके दिवाली के लिए अद्भुत लैंप और उपयोगी बक्से तैयार करते हैं। उन्होंने यह शिल्प असम में काम करते हुए सीखा और फिर इस कला को अपने साथ राजस्थान ले आए। लगभग पांच वर्षों से, वह इस पूर्वोत्तर की कला को राजस्थान की मिट्टी पर जीवंत कर रहे हैं।
मणिपुर की कौना घास की बुनाई इसके साथ ही इंफाल, मणिपुर की थौकचोम लांगलेन चानू की कला हाइपरलोकल स्थिरता के सिद्धांतों का प्रतीक है। वह एक प्रकार की जलीय घास का उपयोग करती हैं जिसे स्थानीय रूप से कौना कहा जाता है।
इसकी प्रक्रिया अत्यंत सूक्ष्म है: पहले घास की खेती की जाती है, फिर उसे काटकर सुखाया जाता है, और उसके बाद उसे बैग जैसे आकार में बुना जाता है। अंत में, उस बुने हुए आकार पर सुंदर कढ़ाई की जाती है।
पत्थर और गोंद की कलात्मक चित्रकारी 'स्टडस पेंटिंग' एक खास तरह की पेंटिग जो मूर्तिकला की तकनीकों को चित्रकला के साथ मिलाती है। इसमें प्राकृतिक तत्वों का उपयोग करके त्रि-आयामी कलाकृतियां बनाई जाती हैं भोपाल की कलाकार ज्योति उमरे इस कला की माहिर हैं।
लकड़ी के आधार पर, संगमरमर के पत्थर को पीसकर बनाए गए महीन पाउडर और बबूल की गोंद के मिश्रण से एक लेप तैयार करती हैं। फिर, मेहंदी की कोन की तरह, इस लेप को परत-दर-परत उकेर कर त्रि-आयामी डिजाइन बनाती है, जिन्हें अंत में तेल रंगों से सजीव किया जाता है। एक कलाकृति को पूरा करने में 20 से 25 दिन लग जाते हैं। ज्योति जी यह कला बचपन से ही कर रही हैं।