डा. पिलकेंद्र अरोरा, वरिष्ठ व्यंग्य लेखक
नईदुनिया को सजग, स्वस्थ और सार्थक पत्रकारिता की यशस्वी यात्रा की आत्मीय बधाई। जबसे होश सम्हाला, घर में नईदुनिया ही पाया। पिता पढ़ने-लिखने में विशेष रुचि रखते थे, तो नईदुनिया संस्कार में आ गया। बात 1965-66 की है। बचपन में राजू चाचा (चंद्रप्रभाष शेखर) की 'बच्चों की दुनिया" और 'ब्लांडी" का बड़ा क्रेज लगा रहता था। बाद में अन्य स्तंभों का महत्व भी समझ आने लगा।
एक दौर था जब नईदुनिया में दूसरे पृष्ठ पर 'नगर के छबिगृहों में" पढ़ना बहुत आनंदित करता था। इससे पता चलता था कि इंदौर के सिनेमाघरों में कौन-कौन सी फिल्में चल रही हैं। दरअसल, तब इंदौर के एकाध माह बाद ही फिल्में उज्जैन में रिलीज होती थी। उन दिनों दूसरे पृष्ठ के पहले कॉलम में प्रकाशित होते थे विश्वविद्यालयों के स्वर्ण पदक और पीएचडी प्राप्त विद्यार्थियों के फोटो। ये बहुत प्रेरक हुआ करते थे। मैंने भी कई फोटो की कटिंग एक कॉपी पर चिपका रखी थी।
प्रखर संपादक प्रभाष जोशी और प्रो. राजेंद्र माथुर के सरल भाषा में लिखे हुए संपादकीय बहुत प्रभावित करते थे। मानो बातचीत कर रहे हों। 26 जून 1975, आपातकाल की घोषणा के एक दिन बाद के उस संपादकीय को भला कौन भूल सकता है, जिसे सत्ता की निरंकुशता के विरोध स्वरूप खाली छोड़ दिया गया था। मगर दरअसल उसमें बहुत कुछ लिखा था। आज 46 वर्ष बाद भी जब प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात होती है, तो गंूज उठता है वह शीर्षक 'जी हुजूरी के बीच खोया एक क्षण"। कौन भूल सकता है व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के 'सुनो भई साधो" और शरद जोशी के 'परिक्रमा" जैसे लोकप्रिय स्तम्भों को। व्यंग्यत्रयी के इन दो प्रमुख व्यंग्यकारों को व्यंग्यपुरोधा बनाने में नईदुनिया की अहम् भूमिका रही है।
अहा! कितना आकर्षित करता था लोकप्रिय स्तम्भ 'पत्र संपादक के नाम", जो संपादकीय पृष्ठ के एक तिहाई भाग में प्रकाशित होता था। उस कॉलम में छपना भी गौरवपूर्ण उपलब्धि माना जाता था। कई पत्र अस्वीकृत होने के बाद ही मुझे मान्यता मिली। पत्र स्तम्भ की लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि कविवर डा. शिवमंगलसिंह सुमन तक ने मुझे दो-तीन बार पत्रों के लिए बधाई दी। चर्चा थी कि संपादक प्रो. राजेेंद्र माथुर स्वयं पत्रों का अंतिम चयन करते थे।
अपने पठनीय और लोकप्रिय स्तम्भों के कारण नईदुनिया लोगों की सुबह की दिनचर्या में शामिल था। जिस दिन अखबार की छुट्टी होती, अधूरापन लगता था। नईदुनिया ने पाठकों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की है, जिन्हें आज भी नईदुनिया पढ़कर ही संतुष्टि मिलती है। तब भी नईदुनिया में प्रकाशित समाचारों को ही अधिकृत व प्रामाणिक माना जाता था। लोग चर्चा करते थे, 'नईदुनिया में छपा है क्या?" व्याकरण और मात्राओं की अशुद्धियों के संबंध में एक चुटकला प्रचलित था कि शुद्ध-अशुद्ध वाक्यों में अंतर सीखना हो तो नईदुनिया के समाचार की तुलना अन्य अखबारों में प्रकाशित उसी समाचार से करो। एक बार जब नईदुनिया ने पुराने फॉन्ट बदले, तो कई दिनों तक लोगों को अटपटा लगा और अखबार पढ़ने से संतुष्टि नहीं हुई।
तब राष्ट्रीय स्तर पर जहां 'धर्मयुग" में छपना महत्वपूर्ण उपलब्धि समझा जाता था, वहीं प्रादेशिक स्तर पर नईदुनिया में। हर नए-पुराने लेखक का पहला और अंतिम प्रेम बन गया था यह अखबार। वर्ष 1981 में लेखक के रूप में मेरी तब एन्ट्री हुई, जब 'मध्य" के बाद व्यंग्य स्तंभ 'अधबीच" प्रारंभ हुआ। लगातार आठ रचनाएं अस्वीकृत होने के बाद जब व्यंग्य छपा 'मिस्टर व्यस्तलाल", तब मित्रों ने कहा बधाई! आखिर दुर्ग फतह कर ही लिया। आज भी देश का हर व्यंग्यकार इस प्रतिष्ठित कॉलम में छपने के लिए लालायित रहता है। इस स्तंभ ने हिंदी व्यंग्य की दूसरी पीढ़ी तैयार की है। हिंदी व्यंग्य का जब भी इतिहास लिखा जाएगा, नईदुनिया की महत्वपूर्ण भूमिका का सम्मान के साथ वर्णन होगा।ं