- ईश्वर शर्मा
कोई शरीर जैसे बिना प्राण के शव हो जाता है, उसी तरह बिना अखबार का कोई प्रदेश रूखा, बेजान और खंख हो जाता है। अखबार दरअसल किसी राज्य की रगों में बहने वाला वह रक्त होता है, जो संस्कृति, साहित्य, कला, सूचना, विकास, सपने और उम्मीद जैसी लाल-सफेद रक्त-कणिकाओं के साथ उस राज्य को जीवंत बनाए रखता है। बीते करीब सात दशक से नईदुनिया इसी तरह मध्य प्रदेश के तमाम शहरों, गांवों, कस्बों की रगों में बहने वाला रक्त बना हुआ है।
वह 1947 का साल था, जब इस महान भारतभूमि की आत्मा धूर्त अंग्रेजों के चंगुल से छूटी। और ठीक उसी बरस नईदुनिया का जन्म हुआ। गोया स्वतंत्र हुए भारत को अपनी भाषा में अपने मन की बात कहने के लिए एक अखबार चाहिए था और नईदुनिया ने जन्म लेकर उस चाहना को पूर्ण कर दिया। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हुआ और उसके करीब दो महीने पहले 5 जून, 1947 को नईदुनिया इंदौर की कोख से इस धरा पर अवतरित हुआ।
नईदुनिया ने अपनी मां अर्थात हिंदी में अपनी माटी के लोगों की बात कहना शुरू की और उस कहानी का किस्सागो बन गया, जिसमें सदियों से घायल भारतवर्ष अपनी ही राख से फिर उठ खड़ा होकर एक ताकतवर देश बन रहा था।
समय बीतता गया और नईदुनिया मध्य भारत की हिंदी पट्टी की प्रतिनिधि आवाज बनता गया। यह वह दौर था जब नईदुनिया की गूंज संसद में भी होने लगी थी। आज भी पुराने लोग चर्चा में कहते हैं- 'नईदुनिया के कहने का अंदाज कुछ ऐसा रहा कि दिल्ली भी इसे गौर से सुनने को मजबूर होती थी।"
फिर आया 1950 के दशक का वह दौर, जब देश में नए प्रदेशों के नवीन नक्शे तय करने की भारी भौगोलिक उठापटक हुई। 1956 के खूबसूरत साल में जब मध्य प्रदेश ने जन्म लिया, तो नईदुनिया सहज ही इस शानदार सूबे के कंठ का शब्द बन गया। जैसे मध्य प्रदेश को अपनी पहली वजनदार, प्रतिष्ठित और आधिकारिक आवाज मिल गई। फिर बाद के वर्षों में मध्य प्रदेश और नईदुनिया, दोनों ही साथ-साथ जवान होते गए।
नईदुनिया अपनी सूझ-बूझ, विवेकसम्मत दृष्टि और दूरदर्शिता के साथ मध्य प्रदेश की तमाम सरकारों को सलाह/सुझाव देता रहा, ताकि नया-नया बना प्रदेश तेजी से तरक्की की रफ्तार पकड़ ले। इस तरह, ये दोनों ही दोस्त परस्पर अपनी-अपनी तरक्की की मुनादी करते रहे और साथ-साथ आगे बढ़ते रहे। प्रदेश अपना विकास कर रहा था, तो नईदुनिया आम जनता के दिलों में अपना विस्तार।
इधर, प्रदेश की तमाम तत्कालीन सरकारें उन सुझावों को युक्तियुक्त ढंग से सुनतीं, उन पर गौर करतीं और उन्हें अपने पंचवर्षीय एजेंडों में शुमार करतीं, जो नईदुनिया की ओर से सुझाए जाते। फिर चाहे प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल हों या उनके बाद के भगवंतराव मंडलोई, द्वारकाप्रसाद मिश्र या फिर श्यामाचरण शुक्ल। बाद के वर्षों में जब प्रदेश में राजनीतिक हवा बदली और जनसंघ का उभार हुआ तब कांग्रेस को शिकस्त देकर संविद सरकार सत्ता में आ गई। किंतु नईदुनिया से सलाह-मशविरे की परंपरा इस दौर में भी जारी रही।
मां नर्मदा और मोक्षदायिनी शिप्रा में साल-दर-साल पानी बहता गया और प्रदेश की सत्ता के सूत्र कैलाशचंद्र जोशी, अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा, सुंदरलाल पटवा से लेकर दिग्विजय सिंह , उमाश्री भारती, शिवराज सिंह चौहान, कमल नाथ और अब फिर शिवराज सिंह चौहान तक के हाथ में आते रहे। बदलाव की इस बयार में जो कुछ नहीं बदला, वह था नईदुनिया द्वारा सत्ता के सूत्रधारों को प्रदेश की तरक्की के लिए सुझाव और सलाह देने का सिलसिला।
74 वर्षों की इस स्वर्णिम और अलौकिक यात्रा में नईदुनिया ने मध्य प्रदेश को और मध्य प्रदेश ने नईदुनिया को ऐसे अपनाया, जैसे दोनों सहोदर हों, एक ही मां के उदर से जन्मे दो भाई। दशक-दर-दशक जैसे-जैसे मध्य प्रदेश तरक्की करता गया, वैसे-वैसे नईदुनिया भी साथ कदम और कांधे मिलाकर उन्न्ति की राह का साथी बनता रहा। नईदुनिया ने मध्य प्रदेश के संघर्ष को अपना संघर्ष माना। वह चाहे इंदौर की प्यास बुझाने के लिए मां नर्मदा को लाने की लड़ाई हो या इंदौर में भारतीय प्रबंध संस्थान (आइआइएम) को लाने का संघर्ष, नईदुनिया सड़क से लेकर संपादकीय स्तंभ तक जनता के हित में अपने हिस्से की लड़ाई लड़ता रहा।
अब जबकि समय तेजी से बदला है, तब नईदुनिया ने अपनी नई भूमिकाएं तय की हैं। इतिहास के गौरवशाली स्वर्णिम कालखंड को अपने कंठ का हार बनाकर यह अखबार अब भविष्य की उड़ान पर उड़ चला है। अपने मध्य प्रदेश व अपने देश को स्वर्णिम बनते देखने के लक्ष्य के साथ नईदुनिया अब एक नई दुनिया बनाने निकल पड़ा है। वैसी दुनिया, जिसमें हमारा प्रदेश व देश श्रेष्ठता का हर तुंग छू ले।
शुभ की कामना...
(लेखक नईदुनिया के संपादकीय पृष्ठ प्रभारी हैं)