विजय मनोहर तिवारी
विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान आचार्य कमल दीक्षित की क्लास में हमेशा नईदुनिया का जिक्र एक ऐसे मीडिया संस्थान के रूप में सुना था, जैसे कोई एनएसडी में आरके स्टुडियो की चमकदार खूबियां बताए, जहां राजकपूर, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मुकेश, शंकर-जयकिशन जैसे सितारों का जमघट रहा हो। नईदुनिया यानी गुण संपन्न् पत्रकारों की एक ऐसी भरोसेमंद जगह जहां से पत्रकारिता के आसमान में उड़ान भरने लायक ताकत पंखों को मिल जाएगी। तब मैं सोचता था कि एक कस्बे से निकले डिग्रीधारी नौसिखिए को भला राजकपूर क्यों अपनी अगली फिल्म में ब्रेक देंगे। कुछ तजुर्बा भी होना चाहिए। खाते में दो-चार भूमिकाएं बताने के लिए होनी चाहिए। तब तो नईदुनिया में प्रवेश की योग्यता बनेगी। इसलिए डिग्री लेने के बाद पहला साल मैंने भोपाल की विभाजित नईदुनिया में काटा, जिसके मास्टहेड पर नईदुनिया के पहले बहुत बारीक अक्षरों में दैनिक भी लगा हुआ था।
भोपाल के प्रेस परिसर में नीलम रेस्टॉरेंट में लंच के दौरान अक्सर भूपेंद्र चतुर्वेदी कहा करते थे कि लंबा टिकना है तो नईदुनिया से होकर गुजरो। वे नईदुनिया में रहे थे। मैंने एक दिन बोरिया बिस्तर समेटकर इंदौर का रुख किया। मेरा स्वभाव ऐसा नहीं था कि बार-बार बैनर और शहर बदलूं। मैं स्थिर होकर स्थिरचित्त से काम करने का आदी था। महेंद्र सेठिया और अभय छजलानी से दो-एक मुलाकातों के बाद ही मेरा चयन हो गया।
15 नवंबर 1994 को मैंने पहली बार नईदुनिया में कदम रखे। मेरा चयन रिपोर्टिंग के लिए हुआ था। ये वो दौर था, जब टीवी चैनलों का नामोनिशान नहीं था। मोबाइल फोन नहीं थे। टेबल पर कम्प्यूटर भी बाद में आए। इंटरनेट का नाम भी नहीं सुना था। पत्रकारिता का ब्लैक एंड व्हाइट कालखंड, जब कभी-कभार रंगीन विज्ञापन मिलने पर दो पन्नो रंगीन हो जाते थे और शाम को फ्रंट पेज डेस्क पर जयसिंह और सुरेश ताम्रकर की मौजूदगी में पहला संस्करण छपकर आने तक कई बार जिक्र हो जाता था कि आज कलर विज्ञापन है।
बाबू लाभचंद छजलानी मार्ग की वह इमारत आधुनिक इंदौर की एक असरदार पहचान थी। हॉल के मेन गेट से भीतर दाखिल होते ही सामने नजर आने वाले पहले दृश्य में राहुल बारपुते हुआ करते थे। अखबार ही नहीं पूरे शहर की सबसे आदरणीय शख्सियत, जिन्हें प्यार से लोग 'बाबा" कहते थे। उनकी मौजूदगी उस हॉल को एक अलग ही असर और रुतबे से भर दिया करती थी। वे पिछले पांच दशक से इस अखबार की सबसे अहम और मजबूत कड़ी थे। अखबार भी जैसे उनकी जिंदगी का एक जरूरी हिस्सा बन गया था। मेरी शुरुआत उस दौर की है, जब प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर के समय की नईदुनिया के शानदार किस्से हमने पुरानी पीढ़ी के नईदुनिया के साथियों से सुने।
नईदुनिया की शानदार पत्रकारीय यात्रा के कई शिखर पात्र अपने-अपने हिस्से की कामयाब पारी खेलकर बिछड़ चुके थे। जैसे बाबू लाभचंद छजलानी और नरेंद्र तिवारी, जो नईदुनिया के तीन बेहद महत्वपूर्ण स्तंभों में से थे, मालवा की असरदार हस्तियां, जिन्हें विरासत में कुछ नहीं मिला था, वे विरासत के निर्माता थे। उनके बाद बसंतीलाल सेठिया। फिर राजेंद्र माथुर और तमाम वे लोग जो नईदुनिया से निकले और लेखन और पत्रकारिता के आसमान के सितारे हो गए। नईदुनिया की समृद्ध विरासत के बनने में इन किरदारों की अहम भूमिकाओं के ढेरों किस्से सुने थे और वह परियों की कहानियां जैसे थे।
मैं करीब नौ साल रहा और अखबार की खुशबू से भरे उस हॉल में एक अद्भुत अदृश्य ऊर्जा का अनुभव किया। किसी सिद्धपीठ के रहस्यमयी मौन में आत्मा की गहराई जैसा अहसास, जिसे शब्दों में बयान करना मुमकिन ही नहीं! इसलिए जब भी मौका मिला मैंने नईदुनिया को हिंदी पत्रकारिता का पवित्र विद्यापीठ कहा। बाबा इस गुरुकुल में सबके श्रद्धेय और आजीवन कुलपति थे। अगर आप साठ के दशक में नईदुनिया में रहे किसी पत्रकार से लिखने को कहेंगे तो बिल्कुल ही अलग कहानी सामने आएगी और अस्सी या नब्बे के दशक से उसका शायद ही कोई जोड़ बैठे। बाद के दौर के बदलाव भी यही फर्क जाहिर करेंगे।
प्रभाष जोशी के अनुभव की नईदुनिया राजेंद्र माथुर के तजुर्बों से बिल्कुल ही अलग होगी। श्रवण गर्ग की दृष्टि अलग तस्वीर खींचेगी, आलोक मेहता के अनुभव कुछ और होंगे और रवींद्र शुक्ला कुछ नए कोण से लिखेंगे। हर मौसम में फसल एक जैसी नहीं होती। नईदुनिया किताब लिखने लायक बदलते मौसमों की एक दिलचस्प दास्तान है, जिसने अपने समय की हर नई तकनीक को अपनाया, कई तरह के प्रयोग किए और अव्वल दर्जे की विश्वसनीयता हासिल की।
इंदौर मध्यप्रदेश का एक जिंदा और दिलरुबा शहर है, जहां मैं पहली बार सिर्फ नईदुनिया के आकर्षण में गया था। मध्यप्रदेश के गठन के बाद इस शहर और नईदुनिया के सफर में एक जैसी कदमताल है। नईदुनिया एक शहर से छपते हुए भी अपने अंचल में पाठकों से बहुत गहरे रिश्ते में जुड़ा था। राजेंद्र माथुर ने कहीं लिखा था कि पत्र संपादक के नाम के पते पर साल में पाठकों की साठ हजार से ज्यादा चिटि्ठयां आती थीं। उस सर्वाधिक लोकप्रिय कॉलम में छपने की विकट होड़ थी और छपने का एक नशा था। यह कैसे हो पाया? वो कौन लोग थे, जो दिल्ली से दूर एक ऐसा अखबार बना रहे थे, जिसने अपने पाठकों को हिंदी में ढंग से लिखने-पढ़ने का संस्कार दिया और जो हर सुबह एक ऐसा साथी बन गया, जिसके न आने पर दिनभर खालीपन लगे। मैं कहता हूं कि अखबारों के पाठक होते हैं, लेकिन नईदुनिया ने
पढ़ने के आदी बनाए-एडिक्ट!
नईदुनिया का तीसरा माला सिर्फ लाइब्रेरी के लिए था। वह हमारे लिए गूगल का काम करती थी। आप दुनिया के किसी भी विषय, बड़ी घटना या मशहूर शख्स के बारे में दस मिनट के भीतर पूरी फाइल देख सकते थे। अशोक जोशी और कमलेश सेन की जोड़ी ने बरसों में 50 हजार से ज्यादा फाइलों और 20 हजार किताबों का संदर्भ खड़ा किया था। वहां बैठकर कुछ घंटे पढ़ने की अपेक्षा हर संपादक ने अपने साथियों से हमेशा की ताकि एक पत्रकार के नाते आपकी नींव मजबूत हो। मैं था सिटी रिपोर्टिंग में लेकिन महीने में अक्सर रविवारीय नईदुनिया और शनिवार के धड़कन में लीड आर्टिकल और फीचर में छपने के दरवाजे भी खुले हुए थे। संपादक किताबों की समीक्षाएं कराते थे और जब खुद की किताबें आईं तो उसकी समीक्षाएं भी विस्तार से छपीं। उड़ान भरने का ऐसा खुला आसमान।
नवोदित पत्रकारों को अखबार में दाखिल होने के पहले एक कड़क चयन प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य था और बाकायदा इसकी एकेडमिक जिम्मेदारी तय थी। वे सामान्य ज्ञान से लेकर भाषा के ज्ञान तक पैनी छानबीन से ही गुजारकर किसी को भीतर आने देते थे। ऐसी चयन प्रक्रियाओं से होकर अखबार में आए अनगिनत पत्रकार देश भर में फैले हुए हैं।डिग्री तो गेट पास है, जिसे दिखाकर आप भीतर दाखिल हो जाएंगे। लेकिन असल इम्तहान और उसमें कामयाब होने की चुनौती हर दिन है। नईदुनिया ने हुनर और सलीका सिखाने की कड़क कसौटियां तय की थीं, जहां से खरा सोना निकलता था।
मैं लिखने के शौक की वजह से ही कॉलेज में गणित के अध्यापन की नौकरी छोड़कर चारों तरफ अनिश्चितताओं से भरी अखबारी दुनिया में आया था। नईदुनिया ने लिखने के भरपूर अवसर दिए। यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि वहां रहते जो कमाया, उसी की बदौलत आगे बड़े अवसर मिले। नईदुनिया ने शायद ही नामी लेखकों की लोकप्रियता का सहारा लिया हो। नईदुनिया मानता था कि हम छापेंगे और नामी लेखक बनाएंगे। इसलिए आसपास के लोगों को लिखने के बेहिसाब मौके थे। यह ठेका दिल्ली और मुंबई के तथाकथित मशहूर लोगों का नहीं हो सकता। आज की भाषा में सेलिब्रिटी राइटर! नईदुनिया ने उन्हें कभी घास नहीं डाली। इसलिए तो अकेला अखबार है, जो पत्रकारिता की नर्सरी कहलाया।
(लेखक ने 25 साल सक्रिय मीडिया में बिताए। पांच साल तक लगातार भारत भर की आठ बार यात्राएं कीं। सात किताबें प्रकाशित हैं। फिलहाल मध्य प्रदेश में राज्य सूचना आयुक्त हैं।)