Anand Magician In Jabalpur : मनोज कुमार दीक्षित, नई दुनिया जबलपुर। जब हम टीवी पर फिल्म में या प्रत्यक्ष रूप से जादू देख रहे होते हैं तो मन में एक अजीब सी हलचल होती है जो अनेक सवाल लिए होती है। यह कि जादूगर अपने करतब को कैसे अंजाम दे रहा है, क्या हम ऐसा कर सकते हैं, वास्तव में ऐसा होता है, यह कितना सही है या हाथों की सफाई है...पर अंतर्मन कुछ भी पूर्ण रूप से स्वीकारने की स्थिति में नहीं होता है। इन सभी सवालों का आसान जवाब देते हुए विश्व विख्यात जादूगर आनंद कहते हैं कि जादू कौशल और अभ्यास की एक मनभावन और मनोरंजक कला है, जहां प्रकृति के नियमों को सहज मनोरंजन के लिए एक तरफ रख दिया जाता है।
विलुप्त होती जादू की कला को लेकर वे विचलित हैं। कहते हैं कि सरकार तमाम तरह की एकेडमी चलाती है पर जीवित संस्कृति को बचाने की दिशा में कोई कार्य नहीं कर रही है। वर्षों से वे मांग कर रहे हैं कि जबलपुर, भोपाल या उज्जैन में यह एकेडमी बननी चाहिए। दो वर्षीय डिप्लोमा के जरिए एक जादूगर तैयार हो सकता है और वह कम से कम पचास या उससे अधिक लोगों को प्रतिदिन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रोजगार देने में सक्षम होगा। यह मनोरंजन पूरी तरह से स्वस्थ है।
जबलपुर के गढ़ा में पंडित अंबिका प्रसाद अवस्थी और डॉ़ महेश्वरी देवी अवस्थी के घर में 03 जनवरी 1952 को जन्मे आनंद जादू की दुनिया का पर्याय बनकर अब तक 36 हजार से ज्यादा शो देश-विदेश में कर चुके हैं। पिता के हुनर को पुत्र जूनियर आनंद ने भी अपनाया और उनके नाम भी अनेक रिकार्ड हैं। फिलहाल सिविल लाइन में परिवार के साथ निवास कर रहे हैं। तीन बहनों में एकमात्र भाई रहे आनंद को जादू का बचपन से ही शौक रहा है। स्कूल के बाहर मदारी के खेल को देखकर जादू में मिले लड्डू-जलेबी खाकर बहुत मजा आता था। यह शौक ही उन्हें जादू की दुनिया में ले आया।
जीवन के 72 वसंत देख चुके आनंद का जीवन सम्मान और पुरस्कारों से भरा है। सिविल लाइन स्थित उनके घर के हाल में हमने नजर दौड़ाई तो एक इंच भी जगह खाली नहीं दिखी। हर दीवार, अलमारी पुरस्कार और सम्मानों से भरी दिखी। अपनी जीवन यात्रा में मिले सम्मान पर वे कहते हैं कि चार अंतरराष्ट्रीय अवार्ड के अलावा हजारों सम्मान मिल चुके हैं, यह लोगों का प्यार है कि अब तक मिल रहा और बेटे को भी कला साधकों ने हाथों-हाथ लिया है। वर्ष 1978 में अमेरिका स्थित बालीवुड में संपन्न हुए अंतरराष्ट्रीय जादूगर सम्मेलन में शामिल हुए और वहां उन्हें बेहतर प्रदर्शन के लिए स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया था।
आचार्य रजनीश के नेपियर टाउन स्थित घर में बचपन से जाने वाले आनंद और उनका साथ अर्सों का रहा। वे कहते हैं कि जबलपुर से जब रजनीश मुंबई पहुंचे तो कुछ समय बाद भी भगवान रजनीश हो गए। मात्र 19 वर्ष की उम्र में वे बुलावे पर मुंबई चले गए थे, वहां ओशो ने उन्हें स्वामी आनंद परमहंस नाम दे दिया। यह वह दौर था जब पुटपर्थी में सत्यसांई चमत्कार दिखा रहे थे। ओशो और स्वामी आनंद परमहंस ने ताज होटल मुंबई में एक पत्रकार वार्ता कर सत्यसांई के चमत्कार को कटघरे में खड़ा करते हुए चेतावनी दे डाली। अगले दिन मुंबई समेत बड़े शहरों में हंगामा मच गया। अखबार और पत्रिकाएं इन खबरों से भरे नजर आए।
ओशो को आनंद ने इतना प्रभावित किया कि उन्हें न्यू संन्यास इंटरनेशनल का वाइस प्रेसिडेंट तक बना दिया। ओशो कम्यून में फिल्म अभिनेता विनोद खन्ना उनसे जूनियर थे। मुंबई छोड़ने के साथ ओशो आनंद को ओरेगन (अमेरिका) ले जाना चाहते थे पर उन्होंने साफ किया कि उनका जन्म तो जादू के लिए हुआ है। मुंबई में अभिनेता और जबलपुर निवासी प्रेमनाथ, विमला बजाज, पंडित रविशंकर, सितारा देवी आदि से गहरा जुड़ाव रहा। सागर निवासी पूर्व मंत्री और गीतकार विट्टठ भाई पटेल का साथ भी लंबा रहा है।
जादू के अलावा बचपन से ही तमाम विधाओं को अपनाया और उसे पूरा किया। आनंद कहते हैं कि उन्होंने वर्ष 1977 में सुनील दत्त, फिरोज खान, परबीन बॉबी अभिनीत फिल्म दरिंदा के निर्देशन दल में शामिल रहे। इसके बाद हास्य कलाकारों से भरी फिल्म चंडाल चौकड़ी और अमिताभ बच्चन अभिनीत तूफान में भी अपना हुनर दिखाया। जबलपुर में मेजर ध्यानचंद के साथ हॉकी तो मशहूर क्रिकेटर सीके नायडू के साथ क्रिकेट भी खेला।
एक किस्सा बताते हुए वे कहते हैं कि शहर के डीएन जैन स्कूल में कक्षा सातवीं की पढ़ाई के दौरान स्कूल का चपरासी शंकरलाल हिप्नोटिज्म की क्रिया करता था। यही वह समय था जब जादू की दुनिया की तरफ मन आकर्षित हुआ। आनंद का कहना है कि उनके परिवार में इस कला को कोई नहीं जानता था। अपने स्कूल के बाहर मदारी को इस तरह की कलाएं दिखाते हुए देखकर उनके मन में इस कला को जानने और सीखने की प्यास जागी और उन्होंने आखिर इस कला को सीखकर ही दम लिया। किताबों का अध्यन कर व इच्छा शक्ति को मजबूत कर वे इस कला में पारंगत हुए।
आनंद का कहना है कि जादू कई मिश्रित विधाओं की समग्र कला है। इसमें हिप्नोटिज्म अहम हैं और इस कला को उन्होंने ओशो से सीखा। वे ओशो को जादू सिखाते थे और बदले में उनसे हिप्नोटिज्म भी सीखते थे। उनका कहना है कि हिप्नोटिज्म दर्शकों को बांधने की वो कला है, जिसमें वे दर्शकों के दिमाग को वो देखने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, जो वे उन्हें दिखाना चाहते हैं। जादू प्रचीन कला है। इंद्रजाल, महेंद्रजाल मूल विद्या यही है। सामान्य रूप से हम प्रकृति के नियम नहीं बदल सकते पर जादू से यह नियम टूट जाते हैं।