ब्रजेश शुक्ला, जबलपुर। मानवीय सभ्यता की शुरूआत से शिल्प कला आकर्षण का केंद्र रहा है, लेकिन हम कल्चुरि काल के शिल्प कला की बात करें तो यह बेजोड़ है। साथ ही इसमें हर धर्म के रंग भी दिखते हैं। कल्चुरि शासकों ने भले की शैव मत को अपनाया हो लेकिन उनकी शिल्प कला में वैष्णव के साथ ही बौद्ध और जैन धर्म के तीर्थंकरों की प्रतिमाएं भी शामिल थीं। ये प्रतिमाएं आज भी लोगों को आकर्षित करती हैं। कल्चुरि शासकों का प्रमुख क्षेत्र त्रिपुरी रहा, इसलिए आज भी शहर के आसपास इन मूर्तियों को आसानी से देखा जा सकता है। खास बात यह है कि कल्चुरि शासकों ने शिल्प कला में हर धर्म को बढ़ावा दिया।
कल्चुरि काल में स्थापत्य एवं मूर्तिकला की आश्चर्यजनक उन्न्ति हुई थी। त्रिपुरी क्षेत्र में हिंदू धर्म की प्रतिमाओं के साथ-साथ जैन और बौद्ध धर्म की प्रतिमाएं भी मिल जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि एक समय त्रिपुरी में धर्म निरपेक्षता का वातावरण था और हिंदू, जैन तथा बौद्ध धर्मों की त्रिवेणी यहां पर निरंतर प्रवाहित हो रही थी। सहिष्णुता की परंपरा भारतीय संस्कृति की देन है। नवमी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक लगभग 350 साल तक कल्चुरि शासकों का साम्राज्य रहा। इस कालखंड में लक्ष्मण राज, कोकल्ल देव, शंकरगण द्वितीय, युवराज देव प्रथम, नोहला देवी, गांगेय देव, त्रिलिंगाधिपति कर्ण, अल्हण देवी, नरसिंह देव प्रथम तथा गोसलदेवी आदि द्वारा शिल्प कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया।
चौसठ योगिनी मंदिर शिल्पकला का तीर्थ
नर्मदा तट के भेड़ाघाट में चौसठ योगिनी का मंदिर है, वास्तव में 81 योगनियों का मंदिर था। यहां श्रेष्ठ शिल्प संपदा है, जो शिल्पकला का तीर्थ बन गया है। मूल मंदिर में स्थापित उमा महेश्वर की प्रतिमा शिल्प का अभिनय रूप दृष्टि का उदाहरण है। शिव थोड़ा सा पीछे झुक कर पार्वती को देख रहे हैं। पार्वती का दर्पणयुक्त हाथ और मुख भंगिमा अति सुंदर है। नंदी की बांयी तरफ कार्तिकेय मयूर पर आरूढ़ हैं। नीचे के हिस्से में नृत्य करते हुए गणों का अंकन सजीव है। इसके साथ ही चारों तरफ छज्जे और स्तंभों से युक्त वृत्ताकार घेरे में 81 मूर्तियां स्थापित हैं। यहां मुंडमाला पहने हुए खोपड़ियों में रक्तपान करती हुई चंडी और काली के भयावह और विकट कंकाल रूप को कलाकारों ने पत्थर में व्यक्त किया है। चंडिका, लम्पटा, डाकिनी, भीषैणी, वीभत्सा एवं छत्रधर्मिणी मूर्तियों में वीभत्स रूप का प्रदर्शन है। कलात्मकता और सौंदर्य की दृष्टि में वैष्णवी, जान्हवी, ऐंद्री, महिषासुर मर्दिनी, रणजिरा और रूपिणी अनुपम है। महिषासुर का वध करती हुई दुर्गा के मुख पर अपूर्व तेज है।
तेवर के पास बौद्ध प्रतिमाओं की प्रचुरता :
तेवर क्षेत्र से बौद्ध प्रतिमाएं बड़ी संख्या में मिली। इससे सिद्ध होता है कि कल्चुरि राजाओं का बंगाल के पास सिरपुर के सोनवंशी बौद्ध धर्मानुयायी राजाओं से अत्यंत सद्भावपूर्ण संबंध रहा। बुद्ध मूर्तियों में अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि, बोधिसत्व और भूमिस्पर्श मुद्रा में स्थित बुद्ध की प्रतिमाएं श्रेष्ठतम शिल्प है।
प्रतिमाओं की आसानी से होती है पहचान:
इतिहासकार डा. आनंद सिंह राणा बताते हैं कि दुनिया में कल्चुरि काल की प्रतिमा को आसानी से पहचाना जा सकता है। क्योंकि कलाकार इनमें ब्रह्मांड से संबंधित कोई न कोई संकेत जरूर देते थे, साथ ही शिल्प के विषय का सटीक और सजीव चित्रण होता था। फलस्वरूप एसा स्पष्ट होता है कि मूर्तियां बोल रही हों। इसके अतिरिक्त शरीर सौष्ठव और अंग अनुपात का भी विशेष ध्यान रखा गया है, जिसमें शरीर के अंगों के साथ ही आभूषणों को सुंदर तरीके से अंकित किया गया है। कल्चुरि काल की मूर्तियों में सहज ही देवत्व भाव जाग्रत होता है। कल्चुरि कालीन शिल्प अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण विश्व में अद्भुत एवं अद्वितीय है।