नईदुनिया प्रतिनिधि, जबलपुर। जबलपुर के गढ़ा क्षेत्र में स्थित पचमठा मंदिर सिर्फ एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि इतिहास, आस्था और अध्यात्म का संगम है। इसे लघु काशी और वृंदावन का रूप कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहाँ भगवान कृष्ण और राधा की ऐसी दुर्लभ प्रतिमा विराजमान है, जिसे किसी मूर्तिकार ने नहीं तराशा बल्कि यह यमुना नदी से प्राप्त हुई मानी जाती है।
माना जाता है कि गोंडकाल में इस क्षेत्र में कई मंदिरों का निर्माण हुआ। विक्रम संवत 1603 के आस-पास संत स्वामी चतुर्भुजदास द्वारा राधा-कृष्ण मंदिर बनवाया गया था, जिसका बाद में जीर्णोद्धार किया गया। मंदिर के चारों ओर शिव मंदिरों का समूह है, जिनका निर्माण गोंड राजाओं ने करवाया। यही मंदिरों का समूह ‘पचमठा’ कहलाने लगा।
मंदिर परिसर में केवल राधा-कृष्ण नहीं, बल्कि द्वादश ज्योतिर्लिंग और हनुमानजी के भी दर्शन होते हैं। यह स्थल भक्तों को सिर्फ दर्शन ही नहीं कराता, बल्कि उन्हें भीतर तक शांति और भक्ति से जोड़ देता है। मंदिर की नक़्काशीदार सुंदर बनावट और हरियाली से घिरा वातावरण इसे और भी पवित्र बना देता है।
इतिहासकार डॉ. आनंद सिंह राणा बताते हैं कि जबलपुर (पुराना त्रिपुरी क्षेत्र) शैव मत की प्रमुख नगरी रही है। त्रिपुरेश्वर महादेव, चौंसठ योगिनी, काल भैरव, उमा महेश्वर मंदिर जैसे दर्जनों प्राचीन शिव मंदिर आज भी इस बात की गवाही देते हैं। परंतु रानी दुर्गावती के शासनकाल में कृष्णभक्त संत विट्ठलनाथ के आगमन के बाद वैष्णव मत का भी प्रभाव बढ़ा।
विट्ठलनाथ जी ने यहां कई राधा-कृष्ण मंदिरों की स्थापना की। इन्हीं से प्रेरित होकर हित हरिवंश द्वारा राधा वल्लभ संप्रदाय की नींव पड़ी। चतुर्भुजदास और दामोदरदास जैसे दो ब्राह्मणों ने इस संप्रदाय को आगे बढ़ाया। चतुर्भुजदास ने जहां साधना की, वहां आज का पचमठा मंदिर स्थापित है।
इस मंदिर से जुड़ी सबसे अद्भुत कथा मुरलीधर की प्रतिमा से जुड़ी है। वृंदावन में संत गिरधरलाल को यमुना नदी में स्नान करते समय यह प्रतिमा प्राप्त हुई थी, जिसे वे गुरु की आज्ञा से जबलपुर लाए और विक्रम संवत 1660 में उसकी प्राण प्रतिष्ठा पचमठा में की गई। मंदिर परिसर में मौजूद शिलालेख इस ऐतिहासिक यात्रा का प्रमाण हैं।