सुरेंद्र दुबे, जबलपुर। संस्कारधानी से लगे कटंगी क्षेत्र की मूल पहचान हैं-झुर्रे के रसगुल्ले। शुद्ध देसी घी में तले जाने वाले खोवा व आटे के 100-100 ग्राम के गोलों के बीच सूखे मेवे चिरोंजी व काजू छिपे होते हैं। यही वजह है कि इनका जायका लजीज होता है। जब इन्हें शक्कर की चासनी में डाला जाता है, तो मिठास से तरबतर होकर खाने वाले को अपरिमित आनंद के सागर में डुबो देते हैं। जो एक बार इनका स्वाद चख लेता है, उसका बार-बार इन्हें खाने को जी ललचाने लगता है। वह झुर्रे के रसगुल्ले का दीवाना हो जाता है। जब भी कटंगी तरफ जाता है, एक-दो या फिर तीन-चार खाकर ही दम लेता है। यही नहीं मटकी में एक-दो या फिर तीन-चार किलो पैक भी करा लेता है। एक मटकी परिवार के लिए होती है, तो शेष मटकियां रिश्तेदारों, मित्रों आदि की फरमाइश पर लानी ही होती है।
कटंगी के झुर्रे के रसगुल्लों की परम्परा दस-बीस नहीं अपितु 100 वर्ष पुरानी है। शुद्ध शाकाहारी जैन परिवार ने इसका शुभारंभ किया था। स्व.कालूराम जैन की तीसरी पीढ़ी इस दिशा में निरंतर सक्रिय है। सुबह से शाम तक रसगुल्ले बनने व बिकने का क्रम जारी रहता है। एक मटकी में 100-100 ग्राम के 10 पीस आते हैं, जिनका वजन एक किलो होता है। एक दिन में 25 से 50 किलो तक रसगुल्लों की खपत आम बात है। विशेष आर्डर 100 किलो तक की आपूर्ति कर दी जाती है।
शहर से बाहर ले जाने के लिए बिना चासनी के रसगुल्ले होते हैं पैक :
जिसे भी शहर से बाहर झुर्रे के रसगुल्ले ले जाने होते हैं, उसके लिए बिना चासनी के रसगुल्ले तैयार किए जाते हैं। वह घर पर स्वयं चासनी तैयार करवाकर उन्हें मिठास से तरबतर कर सकता है। ये रसगुल्ले आठ से 10 दिन तक जस के तस ताजा बने रहते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इनमें मैदा के बदले आटा का इस्तेमाल होता है। वनस्पति घी की जगह शुद्ध देसी घी में तला जाता है। इससे मावा व आटा के साथ चिरोंजी-काजू वाले गुल्ले गजब के लाल-गुलाबी रंगत के साथ थाल पर सजते हैं। इसके बाद उनका शक्कर की गर्मागर्म चासनी से मुलाकात कराकर रसगुल्लों में तब्दील कर दिया जाता है।
प्रज्ञाधाम, निधान व भैंसाघाट आने वालों की पहली पसंद :
कटंगी स्थित स्वामी प्रज्ञानंद महाराज के प्रज्ञाधाम आश्रम में देश-दुनिया से अनेक देशी-विदेशी भक्तों का आगमन होता रहता है। इसके अलावा हिरण नदी के निधान व भैंसाघाट पर्यटन क्षेत्रों में आने वाले सैलानी भी कटंगी के झुर्रे के रसगुल्लों को खासा पसंद करते हैं। इस तरह इन रसगुल्लों की ब्रांडिंग होती चली जाती है। देश के दूर-दराज के शहरों या विदेश ले जाने के इच्छुकों को स्टील के एयरटाइट डिब्बों में रसगुल्ले पैक करके देने की सुविधा भी शुरू की गई है।
मूल झुर्रे के रसगुल्ले की चार ही दुकानें :
कालूराम जैन परिवार की झुर्रे के रसगुल्ले की दुकान के मैनेजर अजय लोधी बताते हैं कि वे एक दशक से यह व्यवसाय देख रहे हैं। यहां झुर्रे की मूलभूत चार ही दुकानें हैं, जो एक ही वंश-परंपरा से संबंधित हैं। इसके बाद देखा-देखी अन्य रसगुल्ला विक्रेता भी पिछले वर्षों में सामने आ गए हैं। लेकिन असली तो असली होता है। कटंगी बस स्टेंड आकर लोग पूछताछ करके झुर्रे के ही रसगुल्ले खाने की जिद करते हैं। जब उनको पूरी तसल्ली हो जाती है, तभी आर्डर देतेे हैं। जैसे ही झुर्रे का एक रसगुल्ला जीभ से लगता है, खाने वाला भली-भांति समझ जाता है कि रसगुल्ला तो इसे कहते हैं।
ललामी लिए काले-काले गुलाब जामुन किंतु रसगुल्ला नाम से हुए मशहूर :
रसगुल्ला शब्द सफेद वाले छेने के रसगुल्लों के लिए उपयोग किया जाता है, यह बंगाल की मूल मिठाई है। खोवे वाले काले रसगुल्लों को गुलाब जामुन कहा जाता है, लेकिन कटंगी के रसगुल्ले सफेद नहीं ललामी लिए काले-काले होने के बावजूद गुलाब जामुन नहीं बल्कि झुर्रे के रसगुल्ले के नाम से ही मशहूर हो चुके हैं।