नईदुनिया प्रतिनिधि, खंडवा/पंधाना। पंधाना के पाडल फाल्या गांव में दशहरे के दिन हुए भीषण हादसे के बाद राहत कार्यों और भोजन वितरण को लेकर एक भ्रामक खबर सामने आने से स्थानीय राजनीति गरमा गई है। सूत्रों के अनुसार, विपक्षी दल की गाड़ी पर सवार होकर गांव पहुंचे एक पत्रकार द्वारा “भोजन न मिलने” को लेकर प्रकाशित खबर ने विवाद खड़ा कर दिया।
भाजपा कार्यकर्ताओं ने इस खबर को “राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित और तथ्यहीन” बताया है। पंधाना भाजपा मंडल अध्यक्ष फ़कीरचंद कुशवाह ने शनिवार को जारी बयान में कहा कि घटना के बाद शुक्रवार की रात मृतकों के परिजनों को पंधाना अस्पताल में 150 से अधिक भोजन पैकेट वितरित किए गए थे। सुबह 7 बजे पंधाना के वरिष्ठ कार्यकर्ता एडवोकेट श्याम गंगराडे ने स्वयं अस्पताल में चाय और बिस्किट की व्यवस्था की थी।
उन्होंने बताया कि पाडल फाल्या गांव में परंपरा के अनुसार अंत्येष्टि पूरी होने से पहले भोजन नहीं बनाया जाता, इस कारण से दोपहर 3:30 बजे सभी मृतकों की अंत्येष्टि के बाद 450 भोजन पैकेट गांव में वितरित किए गए।
फ़कीरचंद कुशवाह ने स्पष्ट किया कि भोजन वितरण के समय किसी प्रकार का फोटो या वीडियो नहीं बनाया गया, क्योंकि शोक में डूबे परिवारों को भोजन देकर फोटो खिंचवाना हमारे संस्कारों में नहीं है।
उन्होंने कहा कि शुक्रवार रात क्षेत्र की विधायक छाया मोरे स्वयं रात्रि 11 बजे तक गांव में मौजूद रहीं, जहां उन्होंने मृतकों के परिजनों से मिलकर सांत्वना दी और उसके बाद अस्पताल पहुंचकर मृतकों के परिजनों के लिए भोजन व्यवस्था करवाई। अस्पताल में अधिकारियों की उपस्थिति के दौरान भोजन वितरण होने के बाद विधायक रात्रि लगभग 12:30 बजे वापस लौटीं।
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भाजपा कार्यकर्ताओं का कहना है कि संबंधित पत्रकार ने कांग्रेस के नेताओं से प्रभावित होकर भ्रामक खबर तैयार की। स्थानीय सूत्रों के मुताबिक, बाइट के दौरान पत्रकार द्वारा कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष से पूछे गए सवालों में “पूर्व निर्धारित राजनीतिक रुख” झलकता था। भाजपा नेताओं ने तंज कसते हुए कहा, 'पत्रकारिता का धर्म निष्पक्षता है, न कि पार्टी विशेष की भाषा बोलना। यदि सच्चाई देखना है, तो पहले कांग्रेस का चश्मा उतारना होगा।'
भाजपा मंडल अध्यक्ष ने कहा कि विपक्ष के प्रचारतंत्र और तथाकथित पत्रकारों की मनगढ़ंत कहानियों से सच्चाई नहीं दबाई जा सकती। गांव में भोजन वितरण, सांत्वना और सहायता कार्य बिना शोर-शराबे के हुए, और यही हमारी संस्कृति और सेवा की परंपरा है।
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या संवेदनशील त्रासदी पर भी राजनीति और टीआरपी की भूख पत्रकारिता की मर्यादा से ऊपर जा चुकी है?