हरिओम गौड़, नईदुनिया, मुरैना। सरकारों से लेकर समाजसेवी संस्थाएं समरसता का पाठ पढ़ाने के लिए कई प्रयास करते रहते हैं। जातिवाद व छुआछूत का भेद मिटाने के लिए बड़े-बड़े नेता एससी वर्ग के लोगों के घर खाना खाने तक जाते हैं, लेकिन चंबल में छुआछूत और जातिवाद का दंश आज भी आदिवासी झेल रहे हैं। अंचल में कई स्कूलों में जहां आदिवासी महिलाएं रसोईया हैं, वहां दूसरी जातियों के बच्चे उनके हाथ का बना खाना नहीं खाते।
मुरैना जिले के पहाड़गढ़ क्षेत्र के निचली बहराई प्राइमरी स्कूल में आदिवासी समाज के बच्चे मध्याह्न भोजन करते हैं, लेकिन इनमें दूसरी जाति का कोई बच्चा शामिल नहीं होता। इस स्कूल में कुल 75 छात्र-छात्राएं हैं, जिनमें 40 आदिवासी हैं।
जब मध्याह्न भोजन परोसा जाता है, तो केवल आदिवासी बच्चे ही खाना खाने बैठते हैं, जबकि अन्य बच्चे अपने घर चले जाते हैं। मरा गांव के प्राइमरी स्कूल में भी यही स्थिति है, जहां रसोईया आदिवासी है और 69 बच्चों में से केवल 35 आदिवासी बच्चे ही खाना खाते हैं।
मानपुर गांव के प्राइमरी माध्यमिक एकल विद्यालय में 150 बच्चे हैं, जहां चारों रसोईया आदिवासी हैं। यहां भी 85 आदिवासी बच्चे खाना खाते हैं, जबकि अन्य बच्चे या तो घर से लाया हुआ भोजन करते हैं या फिर खाना खाने घर चले जाते हैं। छुआछूत की इस स्थिति को शिक्षा विभाग के सहायक संचालक गिर्राज परिहार ने भी देखा है। उन्होंने 16 जुलाई को निचली प्राइमरी स्कूल का निरीक्षण किया, जहां आदिवासी बच्चे ही मध्याह्न भोजन कर रहे थे।
चंबल के मुरैना और श्योपुर जिलों में वाल्मीकि समाज के बच्चों को भी शिक्षा और पोषण आहार का लाभ नहीं मिल रहा है। श्योपुर के वार्ड 16 के वाल्मीकि मोहल्ले में 26 परिवारों के करीब 100 बच्चे कभी आंगनबाड़ी नहीं गए। विजय धूलिया और सत्यप्रकाश वाल्मीकि ने बताया कि बच्चों को पोषण आहार नहीं मिलता और छुआछूत के कारण उन्हें आंगनबाड़ी में नहीं बुलाया जाता।
मुरैना में उत्तमपुरा की वाल्मीकि बस्ती में भी 80 बच्चे आंगनबाड़ी केंद्र नहीं जा पाते। यहां तक कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता भी वाल्मीकि समाज के बच्चों को पोषण आहार के पैकेट नहीं देतीं। शिक्षा विभाग के अधिकारी कहते हैं की बच्चों व उनके अभिभावकों को समझाया जाता है। जागरूक किया जा रहा है लेकिन हालात परिवर्तित नहीं हो रहे हैं। इसमें अब समाजिक संगठनों को भूमिका निभानी चाहिए।
स्कूल में आदिवासी रसोईया खाना बनाती हैं, इसलिए दूसरी जातियों के बच्चे उनके हाथ का बना खाना नहीं खाते। हर रोज बच्चों को समझाते हैं, लेकिन वह आदिवासी महिला के हाथ का बना खाना खाने को राजी नहीं होते, कई बार लोग रसोईया बदलने की मांग भी करते हैं। - संजय, शिक्षक, निचली बहराई।