
डिजिटल डेस्क: समय के प्रवाह में इतिहास अपने अनुक्रियाशील पैरों पर चलता रहा है और रीवा उनका ज्वलंत साक्षी है। आधुनिक भवनों, चौड़ी सड़कों और हवाई संपर्क से सुसज्जित यह शहर कभी पठार के मध्य फैले वन-प्रांत और प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण क्षेत्र रहा करता था। रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. आर.एन. तिवारी के अनुसार, रीवा अपने भौगोलिक महत्व और समृद्ध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण क्षेत्र के प्रमुख नगरों में से एक बन पाया है।
मध्यकाल में टर्की आक्रमणों के बाद हिंदू राजे-रजवाड़ों ने मैदानी इलाकों से ऊँचे दुर्गों की ओर पलायन किया। इस कारण रीवा पठार समेत आसपास के हिस्सों में किसी बड़े नगर की उपस्थिति नहीं मिली। कालिंजर, चुनार और बांधवगढ़ जैसे दुर्ग इस इलाके में उच्च स्थान पर स्थित थे, पर पठार का विस्तृत क्षेत्र मुख्यतः जंगल और वन-उपज पर आश्रित जनजातीय समुदायों का आश्रय था। यहाँ महुआ, जामुन, अमलतास जैसे पेड़-पौधे प्रचुर मात्रा में पाए जाते थे और पश्चिमी-पूर्वी यात्राएँ सीमित एवं चुनिन्दा हुआ करती थीं।
रीवा के वास की शुरुआत में सबसे बड़ा कारण रहा नमक (लवण) का व्यापार। ‘लमाना’ जाति के घुमक्कड़ व्यापारी सिंध, राजपूताना और गुजरात से नमक लाते और वस्तु-विनिमय के माध्यम से दूर-दराज बेचते थे। लंबी यात्राओं के दौरान इन्हें एक सुरक्षित, जलयुक्त और चारे-छांह से परिपूर्ण जगह की आवश्यकता रहती थी। रीवा का वर्तमान क्षेत्र, जो तीन नदियों दबीहर, बिछिया और झिरिया द्वारा घिरा हुआ है, लमानाओं के लिए उपयुक्त ठहराव स्थल सिद्ध हुआ।
लमानाओं द्वारा यहां लगातार ठहरने से यह स्थान व्यापारियों और स्थानीय जनजातियों के लिये आदान-प्रदान का केंद्र बन गया। स्थानीय लोग अनाज तथा वनोपज देकर नमक और गुड़ जैसी वस्तुएँ लेते और रीमा मंडी के नाम से यह स्थान प्रसिद्ध हो गया। यही छोटी-सी बाजारिया बाद में जनसंख्या, स्थायी ठिकानों और शिल्प-व्यवसायों का केंद्र बन गई।
लमानाओं ने सिर्फ व्यापार कर के नहीं, बल्कि अपनी आस्था और संस्कृति को भी स्थापित किया। उन्होंने अपने देवालय जिन्हें 'मड़फा' कहा जाता था बनवाए। इन मड़फों के द्वितीय तल पर वे अपने बीजक तथा खजाने छिपाते थे। कहा जाता है कि रीवा के सुप्रसिद्ध महामृत्युंजय शिवलिंग की स्थापना प्रारंभिक दौर में यही लमाना लोग कर चुके थे इसकी पुष्टि कुंवर रविबंजन सिंह की पुस्तक 'रीवा तब और अब' में मिलती है।
रीवा के इतिहास में 1539–40 ई. का दौर एक निर्णायक मोड़ लेकर आता है। उस समय मुगल-सुल्तान के परिदृश्य में शेरशाह सूरी की घटनाएँ और स्थानीय बघेला-राजाओं के संघर्ष बीच-बचाव का दौर था। इतिहास बताता है कि सलीम शाह ने रीमा मंडी के व्यापारी एवं रणनीतिक महत्व को देखकर यहां एक छोटी-सी गढ़ी (किला) बनवाकर कुछ समय ठहराव किया। बाद में कालिंजर में शेरशाह सूरी की मृत्यु के पश्चात सलीम शाह दिल्ली चले गए और फिर वापस नहीं लौटे। (लेख में आगे यह भी उल्लिखित है कि किले की नींव डालने का श्रेय कुछ स्रोतों मेंइस्लाम शाह को भी दिया गया है।)
सलीम शाह के चरणों के करीब साठ वर्षों बाद रीवा का राजकीय महत्त्व और बढ़ा। बघेल वंश के भीतर सत्ता-संबंधी उतार-चढ़ाव के पश्चात राजा विक्रमादित्य ने 1617–18 ई. के आसपास रीमा-मुकुंदपुर की जागीर मिलने के बाद 1618 ई. में पुरानी गढ़ी का विस्तार कराकर रीमा मंडी को अपनी स्थायी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। राजा विक्रमादित्य के साथ आए लोग और प्रशासकीय ढांचे ने इस छोटे-से बाजार को स्थायी नगर का रूप दिलाया।
इतिहास की रोशनी में रीवा का नाम नव-विकसित नगरों में अग्रणी बनकर उभरता है, जहां घुमक्कड़ लमाना व्यापारी, सामरिक हस्तक्षेप (सलीम/इस्लाम शाह) और स्थानीय राजाओं (विक्रमादित्य) के निर्णायक कदमों का संगम हुआ। इस प्रकार रीवा के स्थायी बसावट बनने का श्रेय लमानाओं के व्यापारिक पहल, किले की तामीर और राजकीय निर्णयों को जाता है। आज यह शहर न केवल मध्य प्रदेश का महत्वपूर्ण शहरी केन्द्र है बल्कि अपने ऐतिहासिक चरित्र के कारण भारतीय इतिहास का भी एक रोचक अध्याय बन चुका है।