Chaitra Navratri 2024 : नईदुनिया प्रतिनिधि, मैहर /सतना। शक्ति की साधना, आराधना और नव सृजन का पर्व मंगलवार से प्रारंभ होना है। मैहर में बिराजी मां शारदा के दर्शनार्थ और आस्था के इस संगम में डुबकी लगाने हेतु लाखों भक्त यहां प्रतिदिन पहुंचेगे। विन्ध्य पर्वत श्रेणियों के मध्य त्रिकूट पर्वत पर स्थित इस मंदिर के बारे में कई मान्यताएं प्रचलित हैं। ऐसा माना जाता है की भक्त माता के दरबार में जो भी मन्नत मांगता है,वह अवश्य पूरी होती है। जब तक मन्नत पूरी नहीं होती तबतक माता से मांगी गई मन्नत के शब्द वहीं पहाड़ी पर गुंजायमान होते रहते हैं और जब मन्नत पूरी हो जाती है तो वे शब्द वहां से गायब हो जाते हैं। शायद यही कारण है की रात्रि में माता की पहाड़ी के चारों ओर कुछ शब्दों सी आवाज आती रहती है।
कुछ पुराने दस्तावेजों के आधार पर कहा जाता है कि मां शारदा की प्रथम पूजा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा की गई थी। मैहर पर्वत का नाम प्राचीन धर्मग्रंथ ''महेन्द्र'' में मिलता है। इसका उल्लेख भारत के अन्य पर्वतों के साथ पुराणों में भी आया है। मां शारदा की प्रतिमा के ठीक नीचे के न पढ़े जा सके शिलालेख भी कई पहेलियों को समेटे हुए हैं।पिरामिडाकार त्रिकूट पर्वत में विराजीं मां शारदा का यह मंदिर 522 ईसा पूर्व का है। कहते हैं कि 522 ईसा पूर्व चतुर्दशी के दिन नृपल देव ने यहां सामवेदी की स्थापना की थी, तभी से त्रिकूट पर्वत में पूजा-अर्चना का दौर शुरू हुआ था।
पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री सती भगवान शिव से विवाह करना चाहती थीं। उनकी यह इच्छा राजा दक्ष को मंजूर नहीं थी। फिर भी सती ने अपनी जिद पर भगवान शिव से विवाह कर लिया। एक बार राजा दक्ष ने यज्ञ करवाया। उस यज्ञ में बह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकरजी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। अपमान से दुखी होकर सती ने यज्ञ की अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस घटना का पता चला, तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। वे सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्मांड में चक्कर लगाने लगे। ब्रह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को 52 भागों में विभाजित कर दिया। जहां भी सती के अंग गिरे, वहां शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता है कि यहां मां का हार गिरा था। इसीलिए यहां का नाम माई हार पड़ा, जो कालांतर में अब मैहर हो गया है।
माता शारदा के मंदिर को लेकर कई लोककथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि आल्हा को मां ने उनकी साधना से प्रसन्न हो अमरत्व का वरदान दिया था। मैहर मंदिर में हर रात को आल्हा दर्शन करने आते हैं । माई की सबसे पहले पूजा आल्हा ही करते हैं। जब ब्रह्म मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा की हुई मिलती है। आल्हाखण्ड में गाया जाता है कि इन दोनों भाइयों का युद्ध दिल्ली के तत्कालीन शासक पृथ्वीराज चौहान से हुआ था। पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में हारना पड़ा था लेकिन इसके पश्चात आल्हा के मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने संन्यास ले लिया था। कहते हैं कि इस युद्ध में उनका भाई ऊदल वीरगति को प्राप्त हो गया था। गुरु गोरखनाथ के आदेश से आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया था। पृथ्वीराज चौहान के साथ उनकी यह आखरी लड़ाई थी। मान्यता है कि मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था, लिहाजा पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा था। मां के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी तलवार शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी, जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। मंदिर परिसर में ही तमाम ऐतिहासिक महत्व के अवशेष अभी भी आल्हा व पृथ्वीराज चौहान की जंग की गवाही देते हैं।
जनश्रुतियों के अनुसार लगभग 250 वर्ष पहले मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जूदेव राज्य करते थे। उन्हीं के राज्य का एक ग्वाला गाय चराने के लिए जंगल में जाया करता था। इस घनघोर भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा छाया रहता था। एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय चल रही है। शाम होते ही वह अचानक लुप्त हो गई। दूसरे दिन जब वह इस पहाड़ी पर गायें लेकर आया तो फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर घास चर रही थी। तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी, उसके पीछे-पीछे वह भी वहां जाएगा। गाय का पीछा कर रहे ग्वाले ने देखा कि वह ऊपर पहाड़ी की चोंटी में स्थित एक गुफा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। ग्वाला बेचारा गाय के इंतजार में गुफा के द्वार पर बैठ गया। उसे पता नहीं कि कितनी देर के बाद गुफा का द्वार खुला और एक बूढ़ी मां के दर्शन हुए। तब ग्वाले ने उस बूढ़ी माता से कहा कि माई मैं आपकी गाय को चराता हूं, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ मिल जाए। बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस ग्वाले को दिए। ग्वाले ने घर में जब उस जौ के दाने वाली गठरी खोली तो हीरे-मोती चमक रहे थे। इसके बाद ग्वाले ने आपबीती महाराजा को सुनाई। राजा ने दूसरे दिन वहां जाने का ऐलान किया। उसी रात राजा को स्वप्न में ग्वाले द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि वो आदि शक्ति मां शारदा हैं। उन्हीं के निर्देश पर वहां मिली मूर्ति को वहीं स्थापित कर दिया गया था।
इनका कहना है
पुजारी पवन पाण्डेय- मां की महिमा निराली है। यहां आने वाले हर भक्तों की मुराद पूरी होती है। सुबह माता का पट खोलने पर कई बार माता नहाई हुई होती हैं।
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बद्री पाठक ने बताया कि मैने कई दर्शनार्थियों से बात की है।उनका कहना है की दर्शन मात्र से ही माता इच्छित फल देती है। कई भक्त यहां दोनो नवरात्रि विगत कई वर्षों से आ रहे हैं जिनकी मुरादें बिना मांगे माता ने पूरी की है।