सिवनी (नईदुनिया प्रतिनिधि)। रावण, कंस सनातनी तो थे पर सदाचारी नहीं थे। वेद मंत्रों के पठन-पाठन से सुख-शांति-आनंद की प्राप्ति होती है।यह धर्मोपदेश दंडी स्वामी सदानंद सरस्वती महाराज ने स्थानीय लान में भक्तो को दिए। गीता परिवार की संयोजकता में इस वर्ष 41 बटुकों का उपनयन संस्कार द्विपीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज के शिष्य दंडी स्वामी के सानिध्य में हुआ।इस अवसर पर स्वामीजी ने धर्मोपदेश देते हुए कहा कि हमें सदाचारी सनातनी होना चाहिए क्योंकि सनातन धर्म सदाचार प्रधान धर्म है।सत्य बोलना, सदमार्ग पर चलना, माता-पिता-गुरु की सेवा करना, सूर्य को अर्ध्य देना, भगवान का भजन व कथा का श्रवण करना, जप-तप करना, अतिथि सेवा करना, ईमानदारी से जीवन यापन करना, शुद्ध भोजन ग्रहण करना इत्यादि सदाचार के प्रमुख लक्षण है।
उन्होंने कहा कि यहां 100 ब्राह्मण बालक शिक्षा के लिए एकत्र हो जाए तो वैदिक संस्कृत पाठशाला खुलवा दिया जाएगा।जहां श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु वैदिक परंपरा से अध्यापन करवाएंगे।गुरु परंपरा से पढ़ने और पढ़ाने से सशक्त ज्ञान प्राप्त होता है जिससे बालक में आचार, विचार, सदाचार, संस्कार का उदभव होगा।मंत्रो और श्लोकों का उच्चारण शुद्ध होगा।स्वामीजी ने उपनयन से संस्कारित हुए बटुकों से कहा कि ब्राह्मणों का जनेऊ होना आवश्यक है।साथ ही गायत्री का जप भी आवश्यक है। आपको नित्य संध्या करना चाहिए, वेद कहते है कि शब्द ही ब्रम्हा है शब्द के माध्यम से ही ब्रम्ह तक पहुंचा जा सकता है।जप करने से मन शुद्ध होता है, शुद्ध मन से ईश्वर को पहचानने की क्षमता उत्तपन्ना होती है, वेद मंत्रों के पठन-पाठन से सुख-शांति-आनंद की प्राप्ति होती है, वेद हमें सदमार्गो से भटकने नहीं देते।
स्वामीजी ने कहा कि जरूरी नहीं गुरु ब्राह्मण ही हो गुरु अन्य वर्ण का भी हो सकता है पर वह सामर्थ्यवान होना चाहिए।उसे धर्म का संपूर्ण ज्ञान होना चाहिए तभी तो वह खुद को और अपने दुसरे का भला कर सकता है।स्वामीजी ने आयोजन में उपस्थित भक्तों को शुभाशीर्वाद प्रदान किया।