सिवनी। नईदुनिया प्रतिनिधि
प्राचीन परम्परा के अनुसार रक्षाबंधन पर्व के दूसरे दिन भुजलियां, कजलियों का त्यौहार नगर सहित ग्रामीण अंचलों में सोमवार को हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। नगर व ग्रामीण अंचलों में सामूहिक रूप से भुजलियां ले जाकर नदी व कुओं में इनका विसर्जन विधि-विधान के साथ किया गया। सुबह से इस पर्व को लेकर उल्लास प्रारंभ हो गया था और भुजलियों को एक जगह एकत्रित कर पूरे परिवार के साथ बैठकर लोगों ने पूजा-अर्चना की।
दोपहर में हुए कार्यक्रम के बाद विधि विधान के साथ चल समारोह के बाद भुजलियां लुटाने का सिलसिला प्रारंभ हुआ जिसे शुभ माना गया है। सोमवार को भुजलियों को कुओं,ताल-तलैयों आदि पर जाकर निकालकर सर्व प्रथम भगवान को भेंट किया गया। इसके बाद लोगों ने एक दूसरे से भुजलियां बदलकर अपने गिले-सिकवे भुलाकर गले मिले। वहीं कई स्थानों पर विभिनन पार्टियों और दलों द्वारा विभिन्न स्थानों पर भुजलिया मिलन समारोह का आयोजन भी किया गया।
इस लिए मनाया जाता
है भुजलियां पर्व
भुजलियां का पर्व सौभाग्य और भाईचारे का प्रतीक भी माना जाता है। पारम्परिक त्यौहार प्रकृत के स्वागत और उसकी उपासना से जुड़ा है। माना जाता है कि मैहर में विराजित मां शारदा देवी के वरदान से अमर हुए आल्हा-ऊदल की बहन से भी इस पर्व का गहरा संबंध है। आल्हा की मुंह बोली बहन चंदा के सुरक्षित बचने पर लोगों ने एक-दूसरे को हरित तृण देकर खुशियां मनायी थीं। हालांकि यह पर्व भारत की कृषि आधारित परंपरा से जुड़ा है । इसमें बारिश के बाद खेतों में लहलहाती खरीफ की फसल से आनंदित किसान एक-दूसरे को हरित तृण यानी कजलियां भेंट करके सुख और सौभाग्य की कामना करते हैं। एक-दूसरे का सुख-दुख बांटकर जीवन की खुशहाली की कामना करते हैं।
ऐसे बोई जाती हैं कजलियां
कजलियां पर्व को लेकर लोग नागपंचमी या फिर किसी अन्य निर्धारित तिथि पर अपने घर में बांस की टोकनियों या माहुल के पत्तों के बड़े से दौनों में मिट्टी भरकर उसमें गेहूं के दाने डालते हैं। इनकी रोज सिंचाई व देख रेख की जाती है। रक्षा बंधन तक ये दाने लहलहाते कजलियों में तब्दील हो जाते हैं। इन हरित तृणों को कजलियां कहा जाता है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाएं इन कजलियों को सिर पर रखकर जलाशयों में पहुंचती हैं। मंगलगीतों के साथ कजलियों को तोड़ा जाता है। कुछ कजलियां विसर्जित कर दी जाती हैं। कुछ हिस्सा वापस घरों में लाया जाता है।
तालाब से कजलियां लेकर महिलाएं मंगलगीत गाते हुए वापस घर आती हैं। यही कजलियां सबसे पहले कुलदेवता व अन्य देवताओं को अर्पित कर सुख-सौभाग्य की कामना की जाती है।