MP Famous Temples: टीकमगढ़। जैसे ही अयोध्या की बात सामने आती है, तो बुंदेलखंड की अध्योया कहे जाने वाली श्रीरामराजा सरकार की नगरी भी चर्चा में आ जाती है। अयोध्या और ओरछा का संबंध करीब 600 साल पुराना है। कहतें है कि भगवान राम अध्योया से चलकर के स्वयं रानी की गोद में आए थे। बुंदेलखंड में मान्यता है कि दिनभर ओरछा में रहने के बाद शयन के लिए भगवान राम अयोध्या चले जाते हैं।
गौरतलब है कि भगवान श्री राम के अयोध्या से ओरछा पहुंचने के बाद वह वहां राजा के रुप में विराजमान हैं। यह बात भी सर्वव्यापक है कि ""राम के दो निवास खास, दिवस ओरछा रहत, शयन अयोध्या वास''। मंदिर पुजारी विजय गोस्वामी बताते हैं कि रोजाना ही रात में ब्यारी की आरती होने के बाद ज्योति निकलती है, जो कीर्तन मंडली और बड़े ही हर्षाेल्लास के साथ पास में ही स्थित पाताली हनुमान मंदिर ले जाई जाती है।
ऐसी मान्यता है कि ज्योति के रुप में भगवान श्रीराम को हनुमान मंदिर ले जाया जाता है, जहां से हनुमान जी शयन के लिए भगवान श्रीराम को अयोध्या ले जाते हैं। पुष्य नक्षत्र पर ओरछा में विशेष संयोग माना जाता है, जहां पर दूर-दराज से श्रद्धालुओं हजारों की संख्या में दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। उस दिन दर्शनों का विशेष महत्व माना जाता है।
टीकमगढ़ जिला मुख्यालय से 80 किमी दूर स्थित ओरछा से नजदीकी बड़ा रेलवे स्टेशन झांसी है जो ओरछा से महज 17 किमी की दूरी पर है। यहां से सड़क मार्ग के जरिए ओरछा पहुंचने में मात्र आधे घंटे लगते हैं। यहां से ओरछा खजुराहो झांसी मार्ग के जरिए पहुंचा जा सकता है। वहीं ग्वालियर से ओरछा की दूरी 120 किमी है जहां से करीब ढाई घंटे में ओरछा पहुंचा जा सकता है।
संवत् 1631 में ओरछा की रानी कुंवरि गणेश भगवान राम अयोध्या से पुष्य नक्षत्र में पैदल चलकर ओरछा लाई थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार ओरछा स्टेट के शासक मधुकर शाह हुआ करते थे, जो स्वयं कृष्ण भक्त थे और उनकी रानी कुंवर गणेश राम भक्त थीं। राम भक्ति और कृष्ण भक्ति को लेकर दोनों में ही अक्सर विवाद होता था। राजा मधुकरशाह वृंदावन जाने की योजना बना रहे थे, तभी उन्होंने रानी कुंवरि गणेश को वृंदावन जाने का प्रस्ताव दिया।
तब उन्होंने इस प्रस्ताव को नहीं माना। साथ ही अयोध्या जाने की जिद कर दी। राजा ने उसी समय कह दिया कि राम सच में हैं, तो ओरछा लाकर दिखाओ। इस बात को लेकर महरानी कुंवरि गणेश अयोध्या की ओर रवाना हो गईं। जहां पर उन्होंने अाराध्य प्रभु राम को प्रकट करने के लिए तप शुरु कर दिया। लेकिन 21 दिन बाद भी कोई परिणाम नहीं मिलने पर वह सरयू नदी में कूंद गईं। लेकिन महारानी की भक्ति नदी में स्पष्ट हो गई। जहां पर भगवान श्री राम बाल स्वरुप में उनकी गोद में बैठ गए।
श्रीराम जैसे ही महारानी की गोद में बैठे, तो महारानी प्रसन्न हो गईं। उन्होंने भगवान श्री राम से ओरछा चलने की बात कह दी। तब भगवान ने तीन शर्तें महारानी के समक्ष रख दीं। उन्होंने कहा कि पहली शर्त यह है कि मैं यहां से चलकर ओरछा में जहां बैठ जाऊंगा, वहां से उठूंगा नहीं। दूसरी यह है कि राजा के रुप में विराजमन होने के बाद वहां पर किसी ओर की सत्ता नहीं चलेगी। इसके साथ ही तीसरी शर्त यह है कि खुद बाल रुप में पैदल पुष्य नक्षत्र में साधु संतों के साथ चलेंगे। यह बातें महारानी ने स्वीकार कीं और भगवान राम अयोध्या से ओरछा आ गए।
राजा मधुकर शाह ने भगवान श्री राम को बैठाने के लिए चतुर्भुज मंदिर का भव्य निर्माण कराया था। लेकिन भगवान श्रीराम की शर्त थी कि वह जहां बैठेंगे, फिर वहां से नहीं उठेंगे। श्रीराम ने चतुर्भुज मन्दिर त्याग करके वात्सल्य भक्ति की प्रतिमूर्ति महारानी कुंवरि गणेश की रसोई में बैठना स्वीकारा था। यही कारण है कि आज भी यह मंदिर सूना पड़ा हुआ है और भगवान महारानी की रसोई में विराजमान हैं। इतिहासकार बतातें है कि पहले रजवाड़ों की महिलाएं जिस रसोई में रहती हैं, उससे अधिक सुरक्षा और कहीं नहीं हो सकती थी।
भगवान श्री राम को राजा मधुकर शाह की रानी कुंवरि गणेश ही अयोध्या से ओरछा लाईं। लेकिन अब कहा जाता है कि असली अयोध्या श्रीराम जन्म भूमि की मूर्ति ओरछा के श्रीरामराजा सरकार मंदिर में विराजमान है। माना जाता है कि 16वीं सदी में भारत में विदेशी आक्रांता मंदिर व मूर्तियों को तोड़ते। उस समय अयोध्या के संता महात्माओं ने भगवान की मूर्ति को जल समाधि कर रेत में दबा दिया था, ताकि तोड़फोड़ न हो सकें। यही मूर्ति महारानी कुंवरि ले आईं हैं। मधुकर शाह हिंदूवादी पराक्रमी राजा थे, इसलिए संत भी उन पर विश्वास करते थे। क्योंकि बुंदेली शासक मधुकर शाह हिंदू पराक्रमी राजा के नाते अकबर के दरबार में भी बगावत कर चुके थे।
ओरछा मेंं भगवान श्रीराम को राजा राम के रुप में पूजा जाता है। यहां पर रामराजा सरकार की सल्तनत चलती है। रामराजा सरकार की चार पहर आरती होती और बाद सशस्त्र सलामी दी जाती है। राज्य शासन द्वारा यहां पर 1-4 की सशस्त्र गार्ड तैनात की गई है। मंदिर परिसर में कमब बंद केवल सलामी देने वाले ही बांधते हैं, वाकी अन्य कमरबंद नहीं बांध सकते। करीब दो लाख रुपए इन जवानों की प्रतिमाह सैलरी राज्य शासन ही देती है।
ओरछा में 31 मार्च 1984 में सातार नदी के तट पर चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा का अनावरण कार्यक्रम कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्व. रामरतन चतुर्वेदी द्वारा किया गया था। यहां पर शामिल होने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहुंची थी। हेलीकाप्टर से उतरते ही इंदिरा गांधी मंदिर में दर्शन करने पहुंच गईं थीं। लेकिन उस समय दोपहर के 12 बज चुके थे और 12 बजे भगवान का भोग लग रहा था। तब मंदिर के पुजारी ने पट गिरा दिए थे।
इस दौरान अफसरों ने पट खुलवाने की बात कही। लेकिन तत्कालीन क्लर्क लक्ष्मण सिंह गौर ने विरोध किया। लक्ष्मण ने प्रधानमंत्री को मंदिर के नियमों की जानकारी दी। इसके बाद इंदिरा करीब 30 मिनट खड़े होकर इंतजार करती रहीं। राजभोग की प्रक्रिया पूरी होते ही पर्दा खुला और उन्हें दर्शन मिल सके। बता दें कि ओरछा की चार दीवारी में कोई भी वीवीआईपी हो या प्रधानमंत्री, उन्हें सलामी नहीं दी जाती है। यहां पर श्रीरामराजा सरकार की सल्तनत चलती है।