
Padma Shri Award: संजय कुमार शर्मा, उमरिया। मैं नीर भरी दु:ख की बदरी कविता को लिखा तो महादेवी वर्मा ने था लेकिन वह जोधइया बाई की जीवनगाथा बन गई। 35-36 साल की बहुत छोटी सी उम्र में जोधइया बाई ने अपने पति मैकू बैगा को खो दिया था। बीमारी से ग्रस्त मैकू बैगा की मौत किसी बड़ी बीमारी की वजह से हो गई थी। उस समय जोधइया बाई बैगा के दो मासूम बच्चे उसके साथ थे और तीसरी संतान गर्भ में थी। अपने दो बच्चों सुरेश बैगा और पिंजू बैगा के लालन-पालन के लिए मजदूरी करते हुए जोधइया बाई बैगा ने अपनी तीसरी संतान बेटी दुखिया बाई को जन्म दिया। बेटी के जन्म के साथ ही जोधइया बाई को कमजोरी ने घेर लिया। तीन बच्चों की जिम्मेदारी ने उसे अपने ही शरीर की कमजोरी के साथ लड़ने को विवश कर दिया, परिणामस्वरूप बेटी के जन्म के साथ ही वह एक बार फिर जीवन के रण में दु:खों से संघर्ष करने उतर पड़ी।
एनएच 43 के किनारे बसा उमरिया जिले का छोटा सा गांव लोढ़ा और वहां की बहुत साधारण सी मजदूर जोधइया बाई बैगा आज दोनों ही राष्ट्रीय पटल पर। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय बैगा चित्रकार के रूप में दुनिया में अपनी पहचान बना चुकी जोधइया बाई बैगा को पद्मश्री पुरस्कार मिला है। एक मजदूर से चित्रकार और इस सम्मन तक पहुंचने का जोधइया बाई का मार्ग जितना संघर्ष से परिपूर्ण रहा उतना ही रोचक भी रहा है।
दु:ख ही जीवन की गाथा रही
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की सरोज स्मृति में लिखी कविता दु:ख ही जीवन की गाथा रही, क्या कहूं जो नहीं कही जितनी सरोज के लिए लगती है उतना ही जाधइया बाई को भी खुद को जोड़ लेती है। पीठ पर मासूम बच्ची को बांधकर जोधइया बाई गाय, भैंस, बकरी चराने जाती थीं। जंगल से वापसी में लकडि़यां भी बीन लाती थी जिसका बोझ भी उसके अपने सिर पर होता था। गांव में लोगों के घरों को लीपना, आंगन और दीवारों को गेंरू से सजाना, खेत में मजदूरी करना यही यही उसके जीवन की भाग दौड़ थी।
गुरूजी ने बदला जीवन
संघर्ष से जूझ रही जोधइया बाई के जीवन में वर्ष 2008 में तब बदलाव शुरू हुआ जब आशीष स्वामी ने लोढ़ा गांव में अपना स्टूडियो जनगण तस्वीरखाना खोला। जनगण तस्वीरखाना का संचालन कर रहे निमिष स्वामी ने बताया कि उनके चाचा ने स्थानीय लोगों को अपने यहां काम पर रखा जिसमें जोधइया बाई बैगा का बड़ा बेटा सुरेश बैगा भी शामिल था। एक दिन आंगन लीपने के लिए वह अपनी मां जाेधइया बाई बैगा को स्टूडियो ले गया। जोधइया बाई बैगा ने अपनी ही शैली में आंगन लीपा और उसे गेंरू और छूई माटी से सजा दिया। यह देखकर अशीष स्वामी जितना खुश हुए उतना ही जाेधइया बाई जैसी बुजुर्ग महिला से यह काम कराने पर नाराज भी हुए। इस दौरान सुरेश बैगा ने बताया कि उनकी मां अभी भी मजदूरी करती हैं। अशीष स्वामी ने उन्हें अम्मा करके संबोिधित किया और कहा कि अब से अम्म मजदूरी नहीं करेगी बल्कि चित्र बनाएंगी।
छिप जाती थीं जोधइया बाई
जोधइया बाई ने बताया कि जब आशीष स्वामी ने उन्हें चित्र बनाने का काम दिया तो वे घबरा गईं। उन्होंने पहले तो साफ मना कर दिया कि यह लिखने-पढ़ने का काम उनसे न हाे पाएगा। तब आशीष स्वामी ने उनसे दीवार पर चित्र बनवाएं। बाद में लकड़ी और सूखे कुम्हड़े, लौकी और तरोई पर चित्र बनवाए। जब उन्हें चित्र बनने के लिए कागज दिया तो वे डर गईं कि कागज और रंग दोनों ही खराब हो जाएगा। लेकिन आशीष स्वामी ने उन्हें डाटकर चित्र बनाने के लिए कहा। जब गुरू जी की डाट पड़ने लगी तो सत्तर साल की आयु के करीब पहुंच चुकी जाेधइया बाई किसी मासूम बच्चे की तरह अपने घर में छिप जाती थीं। आशीष स्वामी उनके घर जाते और उन्हें जबरन अपने स्टूडियो लाते।
तस्वीर के सामने बैठकर रोती रही जोधइया
पिछले साल जब जोधइया बाई को नारी शक्ति सम्मन मिला तब भी स्वर्गीय आशीष स्वामी की तस्वीर के सामने बैठकर जोधइया बाई बैगा काफी देर तक रोती रही और पद्मश्री की घोषणा होने के बाद भी उनका यही हाल हुआ। उन्होंने कहा कि गुरूजी ने एक साधारण मजदूर को कहां पहुंचा दिया। उन्होंने कहा कि जिस तरह से उनके गुरूजी ने स्टूडियों के कलाकारों को संबल प्रदान किया उसी तरह अब उनके भतीजे भी काम कर रहे हैं।