निर्मला भुराडि़या
यदि हम स्वयं से एक प्रश्न पूछें कि क्या इस दौर के बच्चों और किशोरों में भावनात्मक अकेलापन बढ़ रहा है? तो जवाब होगा 'जी हां बिल्कुल!' कहने को तो चारों तरफ बहुत हलचल है। ये रफ्तार का जमाना है, हमने चार कदम चलकर, पीपल की छैंया में सुस्ता लेना पाप समझ लिया है। लिहाजा बच्चे भी कहीं खत्म न होने वाली एक अनंत दौड़ में शामिल हो गए हैं। स्कूल के घंटे खत्म हुए कि कोचिंग क्लास जाना है। परीक्षा खत्म हुई और लो फिर स्कूल शुरू।
गर्मी की लंबी 'बस यूं ही' मस्ती में दिन गुजारने वाली छुटियां अतीत की बात हो गई। आज का बच्चा तो रथों की रेस का घोड़ा है जो हर दम जुता हुआ है। उसकी वल्गाएं अभिभावकों, शिक्षकों और उन शिक्षाविदों के हाथ में है जिन्होंने आज के बच्चों की जिंदगी में छुट्टी का पीरियड ही नहीं बनाया।
बच्चे अपने दोस्त और सहेलियां पहले भी बनाते थे और अब भी बनाते हैं। आज भी उनका कोई एक मित्र होता है जो घनिष्ठ मित्र होता है या दो-तीन मित्रों का ऐसा समूह होता है जो एक दूसरे को समझते, जानते, चाहते हैं। मगर पढ़ाई का बोझ, कुछ कर गुजरने और शीर्ष पर रहने की अपेक्षाओं का बोझ दोस्तों से इनकी भावनात्मक निकटता को फलने-फूलने का समय नहीं देता।
इनका समय एक दूसरे से नोट्स का आदान-प्रदान करने में जितना जाता है उतना समय वे एक-दूसरे से मन की बात करने में नहीं निकाल पाते। संयुक्त परिवार टूट गए हैं। अब घर पर भी बच्चे समूह में नहीं रहते। पिछले बीस वर्षों में जमाना इतना बदला है कि अक्सर पढ़े-लिखे माता-पिता का भी अपने बच्चों से स्पष्ट जनरेशन गैप होता है। अत: किशोर माता-पिता से मन की बात नहीं कह पाते। उन्हें पता है कि वे और माता-पिता संस्कारों के दो अलग छोरों पर खड़े हैं अत: उन्होंने मन की बात कह भी दी तो मां-बाप पचा नहीं पाएंगे।
आज के किशोरों की दोस्ती वर्चुअल माध्यम पर भी चलती रहती है। बच्चे पर अच्छी प्रोफाईल बनाने और अच्छा स्टेटस डालने का भी दबाव रहता है। आज का बच्चा 'पीयर प्रेशर' में ही बहुत से काम करता है। उसे दोस्तों को दिखाना, मां-बाप की अपेक्षाएं पूरी करनी है, उपभोक्ता संस्कृति के अनुरूप जीवन जीना है। आज बचपन और किशोरावस्था जटिलताओं से भर गए हैं।
लिहाजा हर दूसरे-चौथे दिन किसी किशोर अथवा किशोरी द्वारा आत्महत्या कर लेने की खबरें आती हैं। ये खबरें बाकी माता-पिता, शिक्षकों और समाज के लिए खतरे की घंटी होना चाहिए ताकि वे यह सोचें कि बच्चे के लिए कैरियर के जितनी ही महत्वपूर्ण परिवार से मिलने वाली भावनात्मक सुरक्षा, प्यार और हर हाल में अपनाए जाने का विश्वास भी है। कभी भी बच्चों को यह ताने नहीं मिलना चाहिए कि देखो हम तुम्हारे लिए कितना करते हैं और तुम हो कि अच्छा रिजल्ट नहीं लाते।
बच्चों को बार-बार यह एहसास दिलाना उनमें ग्लानि भाव पैदा करता है और जो अंतत: अवसाद में भी परिणित हो सकता है। बच्चे का दिल और बच्चे की दुनिया समझना भी उसकी फीस भरने जितना ही आवश्यक कर्तव्य है।