गरिमा संजय
उस शाम इंदु ऑफिस से जल्दी निकल पड़ी थी। इंदु ही क्या, शहर की अधिकतर स्त्रियां अपने-अपने दफ्तरों से जल्दी काम निपटाकर घर की ओर चली जा रही थीं। सभी स्त्रियों में एक अजब-सा उत्साह दिखाई दे रहा था। अगले दिन करवा-चौथ जो थी। सभी को पूजा की तैयारी के साथ ही अपने साज-श्रृंगार की भी तैयारी करना थी। नए कपड़े, चूड़ियां, पूजा का सामान और साथ ही अपनी साज-सजावट की तैयारी। इन सबके साथ मेहंदी लगवाने का जोश....।
ऑफिस से निकलकर इंदु ने रास्ते में कुछ जरूरी खरीददारी की और फिर दो साल के बेटे को डे-केयर से लिया और घर पहुंची। बेटे को दूध और नाश्ता देकर जल्दी से रात के खाने की तैयारी करवाने में जुट गई। किसी भी तरह रात के सारे कामकाज जल्दी पूरे कर वह भी मेहंदी लगवाने की फिराक में थी। मेहंदी न हुई, स्टेटस सिंबल हो गया। करवाचौथ के दिन अगर किसी स्त्री के हाथ मेहंदी से नहीं रंगे तो अधूरापन ही समझा जाता है। खाने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी, तब तक पति देव भी घर आ गए। चाय पर गपशप चलती रही। फिर बेटे के सोने का समय होने लगा। उसे खाना खिलाकर सुलाया। फिर बेटे और घर की जिम्मेदारी पति को सौंप कर वह तेजी से सीढ़ियां उतरकर पार्लर जा पहुंची।
पार्लर क्या था, पूरे कैंपस में करवा-चौथ का मेला-सा लगा था। हर उम्र की स्त्रियां यहां-वहां चौकियों, कुर्सियों पर बैठी मेहंदी लगवा रही थीं। मधुर संगीत के बीच उस खुशनुमा माहौल में चहकती आवाजें रस घोल रही थीं। हर तरफ उत्सव-सा माहौल था। इंदु ने भी अपने कदम उसी ओर बढ़ा दिए।
इंदु को वहां पहुंचने में देर हो गई थी। अधिकतर स्त्रियां वहां शाम से ही डेरा जमाए बैठी थीं। कलाकार व्यस्त थे। उसने इधर-उधर देखा, 'कोई खाली हो तो मेरा काम भी जल्दी से हो जाए और मैं घर जल्दी वापस जा सकूं।' सोच ही रही थी कि एक कलाकार लड़की ने उसे बुला लिया था और बैठते ही अपनी कलाकारी उसकी हथेली पर दिखाने की तैयारी में जुट गई।
'दोनों हाथों में न?' उसने पूछा।
'नहीं, देर हो जाएगी...,' इंदु हिचकिचाई थी।' पता नहीं बेटा कब जाग जाए। फिर सुबह की भी तो तैयारी बाकी है। वह मन ही मन उलझने लगी थी'।
'अरे दीदी, रोज-रोज कहां लगवाती हो? पूरे साल का त्योहार है। दोनों हाथ तो रंगो'।
पड़ोसी होने के नाते उसे इंदु से इस तरह की जिद करने का पूरा हक था। हालांकि रात अधिक होने के कारण अगले दिन के काम भी रह-रह कर मन का बोझ बढ़ा रहे थे, फिर भी साल भर का त्योहार था, सो दोनों हाथों में मेहंदी लगवाने का लालच वह रोक न सकी और उसे 'हां' कह दिया। एक तरफ काम और जिम्मेदारियों को याद करके मन का बोझ बढ़ रहा था, तो दूसरी ओर मेहंदी लगवाने का शौक भी नहीं छोड़ा जा रहा था।
करवा-चौथ पर मेहंदी लगवाना नियम-सा बन गया है। मेहंदी नहीं लगाई तो मानो व्रत ही पूरा न होगा। हर उम्र की स्त्रियां बड़ी उमंग के साथ अपनी हथेलियों को रंगवा कर उन रंगों पर इतराती हैं और फिर किसकी मेहंदी कितनी रची, इस बात की होड़ में लग जाती हैं। मेहंदी रचाने के लिए न जाने कितने सारे जतन कर लिए जाते हैं। अब इस भीड़ में इंदु कैसे न शामिल होती? ऐसी कोई अनोखी भी तो नहीं वह! काम तो होते रहेंगे, आखिर रोज काम में ही तो व्यस्त रहती है। घर, दफ्तर, बेटा, पति इन्हीं सब में हर वक्त उलझी रहती है। ऐसे में अगर थोड़ा वक्त ख़ुद को दे, कुछ मिनट शौक को दे तो बुराई ही क्या है? यों भी, हथेलियां न रंगें तो त्योहार में कितना अधूरापन रहेगा! सोच आखिर समय पर हावी हो गई।
एडवांस पैसे देते हुए एक बार फिर दिमाग में विचार दौड़ा कि अब एकाध घंटे तो सूखने में ही लगेंगे और इस बीच काम भी नहीं किया जा सकता। किचन ऐसे ही बिखरा हुआ छोड़ आई थी, पता नहीं देवेन ठीक करेंगे या ऐसे ही रह जाएगा! वो सब कब समेटूंगी, फिर कब सोऊंगी? सुबह बेटे को डे-केयर छोड़ने के बाद ऑफिस भी तो जाना है। सारी ऊहापोह के बावजूद वह जल्दी ही मेहंदी की सुंदर डिजाइन में खो-सी गई, उसे अपने ही हाथ खूबसूरत दिखने लगे।
थोड़ी देर में आसपास नजर घुमाई तो महसूस हुआ कि अधिकतर स्त्रियों के हाथों में मेहंदी सज चुकी थी। उनमें से कुछ जा चुकी थीं और कुछ जाने की तैयारी में थीं। उसका मन एक बार फिर घर की ओर भागने लगा। लेकिन पैसे तो एडवांस दे चुकी थी। अब तो दोनों हाथों में लगवाने के अलावा कोई चारा न था। अभी तो पहले ही हाथ में देरी थी। दूसरे हाथ में कब लगेगी? उलझ्ान में नजर दूसरी ओर घ्ाुमाई तो देखा गेट के पास ही एक युवा जोड़ा बातें कर रहा था। महसूस हो रहा था कि वह लड़की मेहंदी लगवाने में कुछ संकोच-सा बरत रही थी और उसका पति उससे मनुहार कर रहा था। अद्भुत दृश्य था वह! उस प्रेम व स्नेह से वह मुग्ध ही हो गई थी...। उनके बीच ऐसा मधुर अनुराग देखकर इंदु मन ही मन मुस्कुरा उठी।
इसी बीच मेहंदी लगा रही लड़की ने उससे पूछा कि क्या उसे मेहंदी का डिजाइन अच्छा लग रहा है? तब जाकर उस जोड़े से उसका ध्यान भंग हुआ और वह लड़की से बातचीत में मश्ागूल हो गई। दोनों की बातें खत्म हुईं तो एकाएक इंदु को महसूस हुआ कि कोई उसकी बगल में आ खड़ा हुआ है। नज्ार उठाकर देखा, तो पाया वही लड़की थी, जो अब तक गेट के पास खड़ी थी। उसे देखकर इंदु ऐसे मुस्कुराई जैसे बरसों से जानती हो।
बदले में उस स्त्री ने संकोच भरी निगाहों से पूछा, 'कैसे लगा रही हैं'?
सुनते ही इंदु ने डिजाइन उसे दिखा दिया। मेहंदी लगाने वाली लड़की ने उससे पूछा, 'लगवानी है क्या आपको भी?'
जवाब में वह कुछ संकोच के साथ चुप रह गई। कलाकार ने इस बार थोड़ा तेज पूछा, 'लगवानी है तो बताओ, अभी दूसरी लड़कियां खाली हैं। कोई न कोई लगा देगी'।
एक बार फिर उसने दबे स्वर में पूछा, 'कैसे लगा रही हैं?'
इस बार इंदु उसका मतलब समझ गई और मेहंदी लगा रही लड़की से कहा, 'शायद ये रेट के बारे में पूछना चाहती हैं'। 'सौ रुपए,' कलाकार ने उसकी ओर देखकर जवाब दिया और एक बार फिर अपने काम में व्यस्त हो गई।
कलाकार के चेहरे पर जितना आत्मविश्वास झ्ालक रहा था, उस नवविवाहिता के चेहरे पर संकोच की रेखाएं उतनी ही अधिक उभरती चली जा रही थीं। एक बार फिर उसने दबे स्वर में पूछा, 'दोनों हाथ'?
इस बार कलाकार ने बिना उसकी ओर देखे ही जवाब दिया, 'नहीं, सौ रुपए में एक हाथ और जवाब सुनते ही वह स्त्री धीमे से कुछ पीछे हट गई।
'क्या हुआ? लगवानी है क्या'? कलाकार ने फिर पूछा।
'हज्बैंड से बात कर लूं,' अपने जवाब से उसने अनिश्चितता जाहिर करने की कोशिश की थी। लेकिन इंदु देख सकती थी कि वास्तव में वह निश्चय कर चुकी थी कि उसे मेहंदी नहीं लगवानी। केवल एक हाथ में मेहंदी लगवाने के लिए गाढ़ी कमाई के सौ रुपए खर्च कर देने का उसका कोई इरादा नहीं था। वह तो बस हज्बैंड से बात करने के बहाने वहां से खिसक लेना चाहती थी, ताकि किसी दूसरे के सामने उसकी असमर्थता जाहिर न हो सके, ताकि इंदु या मेहंदी लगाने वाली कलाकार के सामने उसकी आर्थिक स्थिति का हाल न जाहिर हो जाए। गौर से देखते हुए, इंदु उसके मन की स्थिति का आकलन करने की कोशिश कर रही थी। उस स्त्री की आंखों में उसकी मन:स्थिति इंदु भली-भांति समझ सकती थी। उसके व्यवहार, उसकी बातों और उसकी आंखों को देखकर इंदु उसका मन स्पष्ट पढ़ सकती थी।
भरे मन से इंदु ने गेट की ओर देखा। इस बार उस लड़की का पति उन्हीं लोगों की ओर देख रहा था। लेकिन शायद नहीं... एकाएक इंदु कुछ पल अपलक उस पुरुष की ओर देखती रह गई। उसकी आंखों में काला चश्मा था और हाथ में छड़ी। इंदु के मन को इस बार गहरा झटका लगा था। समझते देर न लगी कि उसके पति नेत्रहीन थे। न जाने क्यों वह खूबसूरत-सी मेहंदी भी इस पल उसका ध्यान न हटा सकी थी। उसका सारा ध्यान उस जोड़े पर ही केंद्रित हो गया था। पति के पास वापस जा रही लड़की ने धीरे से कुछ कहा और फिर दोनों लौटने लगे।
इंदु समझ सकती थी कि उसने अपने पति से वहां से चलने को कहा है। पति ने उसे एक बार फिर रुकने को कहा। लड़की एकबारगी पलटी, लेकिन इस बार पति का हाथ पकड़कर उन्हें भी साथ ले जाने के लिए। अनमनाकर इंदु ने अपने हाथ की ओर देखा। पहले हाथ की मेहंदी पूरी होने वाली थी।
घड़ी की ओर देखा, साढ़े दस बज चुके थे।
'दूसरा हाथ पूरा होने में कम से कम आधे घंटा और लगेगा', सोचकर इंदु का मन उकता गया था। 'क्या मैं उन्हें रोककर अपने दूसरे हाथ की मेहंदी उसके हाथ में लगने दूं?' इंदु का मन तड़प उठा था। उसका शौक भी न जाने क्यों कम हो चला था। उसे पहले ही घर-बच्चा और बिखरा किचन याद आ रहा था, अब तो उस पति-पत्नी की आर्थिक विपन्नाता ने उसे पूरी तरह निराश कर दिया था।
'मैं यों भी तो बेमन से ही मेहंदी लगवा रही थी। ऐसे में, अगर मेरे दूसरे हाथ की मेहंदी उस स्त्री के एक हाथ में लग जाए तो क्या बुरा हो जाएगा?' वह खुद से ही पूछ बैठी।
'लेकिन उन दोनों से क्या कहूं? कहीं मेरी हमदर्दी को वे मेरी मेहरबानी समझ बैठे तो? कहीं मेरे प्रस्ताव को वे दोनों अपनी असमर्थता की तौहीन समझ बैठे तो"? इंदु अंतर्द्वंद्व में फंसकर रह गई। वह उनके सामने कोई भी प्रस्ताव न रख सकी। अपने प्रस्ताव में उसे दया की बू आने लगी थी, ऐसी बू जो किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति को शायद ही पसंद आए!
'इस तरह से अपनी दया दिखाकर मैं उनके स्वाभिमान को कैसे चोटिल कर सकती हूं'? इंदु समझ न सकी। उसका मन तो बस उन दोनों को समझने की चेष्टा ही करता रह गया था, उसकी निगाहें बस उसी दिशा में भाग रही थीं, जिस ओर वे दोनों चले जा रहे थे, एक-दूसरे को सहारा देते।
उस अनजान पुरुष के लिए इंदु के मन में सम्मान बढ़ता जा रहा था। जो खुद देख नहीं सकता था, फिर भी पत्नी के हाथों पर मेहंदी सजाने की चाह रखता था। उसने शायद कभी मेहंदी की डिजाइन भी नहीं देखी होगी, लेकिन उसकी सुंदरता की महक वह अपनी पत्नी की खुशियों में महसूस करने की ख्वाहिश रखता था।
इंदु को उस पति के प्रेम व स्नेह और उसकी पत्नी के व्यवहार पर गर्व होने लगा था। वह सोच रही थी, करवा-चौथ का वास्तविक अर्थ इस पति-पत्नी को मालूम है। एक स्त्री के लिए सुंदर दिखना और परंपराओं का निर्वाह करना कितना जरूरी-सा हो जाता है, मगर वह लड़की पति के दबाव के बावजूद इस शौक के लिए गाढ़ी मेहनत की कमाई नहीं गंवाना चाहती थी। उसने दूसरों के सामने अपनी आर्थिक स्थिति का बखान करने के बजाय शालीनता के साथ वहां से चले जाना उचित समझा।
इंदु मन ही मन ग्लानि से भरती जा रही थी। शायद वह कोशिश करती तो उन दोनों का त्योहार कुछ खास बन पाता, लेकिन वह सोचती ही रह गई, कर कुछ न पाई। अपने हाथों की मेहंदी के रंग को भुलाकर त्योहार की सारी खुशियां बिसराकर वह बस उसी दिशा में देखती जा रही थी, जिस दिशा में वह दंपति एक-दूसरे का हाथ थामे धीमे-धीमे डग भरते जा रहे थे। धीरे-धीरे वे अंधेरे में ओझल होते जा रहे थे....।
Posted By: Madan tiwari
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