नई दिल्ली। लॉ कमीशन ने यूनिफॉर्म सिविल कोड पर केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि फिलहाल देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की जरुरत नहीं है।
आपको बता दें केंद्र सरकार ने देश में हर धर्म के लोगों के लिए एक यूनिफॉर्म सिविल कोड पर लॉ कमीशन से कानूनी मशविरा मांगा था। इसके अलावा मुस्लिमों में प्रचलित तीन तलाक, बहु-विवाह और हलाला भी लॉ कमीशन से राय मांगी गई थी।
संविधान में पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड की व्यवस्था
केवल सरकार ही नहीं यूनिफॉर्म सिविल कोड पर आम लोगों के बीच बहस चल रही है। ऐसा माना जा रहा है कि अल्पसंख्यकों को घेरने के इरादे से मौजूदा एनडीए सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड के प्रस्ताव को आगे बढ़ा रही है, लेकिन ये हकीकत नहीं है, क्योंकि संविधान की धारा 44 के तहत ये राज्य की जिम्मेदारी बताई गई है कि वो देश में समान नागरिक संहिता लागू करे, लेकिन ये आज तक लागू नहीं हो पाया है।
इसे लेकर ही देश में बहस चल रही है। अगर यूनिफॉर्म सिविल को़ दशकों से सरकारों के एजेंडे में था, तो सवाल ये खड़ा होता है कि अब क्यों इस पर इतनी बहस हो रही है। मौजूदा सरकार की नजर में राष्ट्रहित को देखते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड जरुरी है।
अलग-अलग धर्मों में मौजूदा पर्सनल लॉ को खत्म करने के लिए ही सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड लाना चाह रही है। इसे लेकर समाज के कई तबके लगातार आवाज उठा रहे हैं। इसका मकसद पर्सनल लॉ के तहत लोगों से होने वाले अन्याय को खत्म करना है। देश की ज्यादातर आबादी जहां धार्मिक कानूनों की वजह से अन्याय झेलने वालों को संविधान के तहत न्याय दिलाने की व्यवस्था की वकालत कर रहे हैं, वहीं कुछ धार्मिक संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। उन्हें यूनिफॉर्म सिविल कोड संविधान के तहत अपने धार्मिक विचारों को फैलाने और मानने की आजादी में बंधन जैसा दिख रहा है।
महिलाएं और यूनिफॉर्म सिविल कोड:
देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जो एक सबसे बड़ी वजह है, वो महिलाओं को समान अधिकार देना है। भारत में जितने भी धर्म हैं, उनमें कई ऐसी पुरानी परंपराएं चला आ रही हैं, जो औरतों को उनके हक से महरुम कर देती हैं और उनकी आर्थिक सामाजिक तरक्की मे आड़े आती है।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसका सबसे ज्यादा विरोध कर रहा है। उसे ऐसा लग रहा है कि सरकार जानबूझकर उनके धर्म को निशाना बना रही है। ऐसा इसलिए लग रहा है, क्योंकि दूसरे धर्मों के मुकाबले इस्लाम में ज्यादातर भेदभावपूर्ण प्रथाएं सालों से चली आ रही हैं।
समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा। कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे।
इस्लाम और यूनिफॉर्म सिविल कोड:
यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने में आ रही दिक्कत की सबसे बड़ी वजह है ये धारणा है कि देश में अल्पसंख्यकों की धार्मिक आजादी पर रोक लगाएगा। हालांकि तथ्य इसके उलट है, क्योंकि समान नागरिक संहिता का अगर सबसे ज्यादा किसी को फायदा होगा तो अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं को।
यही वजह है कि ऑल इंडिया वुमन पर्सनल लॉ बोर्ड यूनिफॉर्म सिविल कोड के मुद्दे पर मौजूदा सरकार के साथ खड़ी दिख रही है। वुमन पर्सनल लॉ बोर्ड के मुताबिक, सरकार महिलाओं को प्रताड़ित करने वाली मध्ययुगीन प्रथाओं को खत्म करना चाह रही है, जिसमें तीन तलाक, बहु-विवाह और निकाह हलाला सबसे अहम है।
देश के मुस्लिमों के लिए मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड है। इसके अंतर्गत शादीशुदा मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को महज तीन बार तलाक कहकर तलाक दे सकता है। वहीं इस्लाम में बहु-विवाह की भी प्रथा चली आ रही है। इसके तहत एक मुस्लिम पुरुष को एक बार में चार महिलाओं से निकाह कर सकता है।
वहीं निकाह हलाला जैसी प्रथा की वजह से मुस्लिम महिलाओं को जिल्लत सहनी पड़ती है। इसके तहत तलाक के बाद अगर दोनों फिर से शादी करना चाहते हैं तो महिला को पहले किसी और पुरुष के साथ शादी रचानी होगी, उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने होंगे। इसे हलाला कहा जाता है। उससे तलाक लेने के बाद ही वो पहले पति से फिर शादी कर सकती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही तीन तलाक को गैर संवैधानिक करार दे चुका है। इसके बाद भी इससे जुड़े मामले सामने आ रहे हैं। एनडीए सरकार इसकी आड़ में मुस्लिम महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को दूर करने के लिए ही यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने पर जोर दे रही है।
इस लॉ में महिलाओं को तलाक के बाद पति से किसी तरह के गुजारे भत्ते या संपत्ति पर अधिकार नहीं दिया गया है बल्कि मेहर अदायगी का नियम है। तलाक लेने के बाद मुस्लिम पुरुष तुरंत शादी कर सकता है जबकि महिला को इद्दत के निश्चित दिन गुज़ारने पड़ते हैं।
केंद्र सरकार इन प्रथाओं को संवैधानिक मूल्यों का हनन मानती है, क्योंकि ये लैंगिक समानता, सांप्रदायिकता और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के खिलाफ है। सरकार का इसे लेकर साफ मत है कि, जब कई इस्लामिक मुल्क ने इन प्रथाओं पर बैन लगा दिया है। इन प्रथाओं का कोई धार्मिक आधार नहीं है, ये महिलाओं पर पुरुषों का प्रभुत्व बढ़ाने जैसा भर है।
हिंदू और यूनिफॉर्म सिविल कोड:
हिंदुओं के मामले में यूनिफॉर्म सिविल कोड से उन महिलाओं को राहत मिल सकती है, जिन्हें उनके पति सिर्फ इस आधार पर तलाक दे देते थे कि वो उन्हें उसके बूढ़े मां-बाप से अलग करने की क्रूरता कर रही है। इस मुद्दे पर वो महिला सुरक्षा और अधिकारों को सुनिश्चित करेगा।
मौजूदा हिंदू कानूनों के मुताबिक, एक हिंदू बेटा पत्नी को अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ रहने और उन्हें आश्रय देने की जिम्मेदारी से दूर करने की कोशिश करने की क्रूरता के लिए तलाक दे सकता है। सालों पुराना ये कानून अभी भी प्रचलन में इसलिए है, क्योंकि कई लोगों का ऐसा मानना है कि किसी पति को अपने परिवार से अलग करना पश्चिमी सोच है और ये भारतीय परंपरा और मूल्यों से मेल नहीं खाती है।
देश में इसलिए है इस कानून की जरुरत :
अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे। शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं।
इसलिए हो रहा है विरोध
यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध करने वालों का कहना है कि ये सभी धर्मों पर हिन्दू कानून को लागू करने जैसा है।
इन देशों में लागू है यूनिफॉर्म सिविल कोड :
एक तरफ भारत में समान नागरिक संहिता को लेकर बड़ी बहस चल रही है, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान जैसे कई देश इस कानून को अपने यहां लागू कर चुके हैं।