नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। 11 मई का ही वो दिन था जब परमाणु बम के धमाके से पोखरण की धरती दहल गई थी लेकिन इसी की ताकत ने दुनिया में भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाया था। टेक्नोलॉजी डे के रूप में मनाए जाने वाले इस दिन को याद करते ही अटल सरकार का वो शासन याद आ जाता है जब देश ने इतना बड़ा परीक्षण देखा था। हालांकि इसके बाद भारत के ऊपर दुनियाभर के देशों ने आर्थिक समेत कई तरह के प्रतिबंध लगाए थे।
छोटे पोखरण का बड़ा इतिहास
11 मई, 1998 को जब राजस्थान के जोधपुर-जैसलमेर मार्ग पर बसे छोटे से कस्बे पोखरण के आसपास के तपते मरुस्थल में सूरज अपनी पूरी तपिश बिखेर रहा था। तब भारतीय परमाणु वैज्ञानिकों ने 24 साल के अंतराल के बाद एक बार फिर पोखरण की रेतीली भूमि पर परमाणु विस्फोट कर दुनिया की महाशक्तियों को यह अहसास करवा दिया कि वे अपनी परमाणु संपन्नता पर इतरा कर दुनिया को अपनी धौंसपंट्टी में लेने की कोशिश न करें, क्योंकि यह कूवत हम भी रखते हैं।
पोखरण 2 ने दुनिया को चौंकाया
भारत की परमाणु शक्ति का यह प्रदर्शन तब दुनिया को चौंकाने के लिए काफी था और दुनिया के तमाम मुल्कों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। जवाब में पाकिस्तान ने भी कुछ ही दिनों के अंतराल में परमाणु विस्फोट किया। दक्षिण पूर्व एशिया के दो परस्पर प्रतिद्वंद्वी देशों में परमाणु शक्ति की होड़ को देख संयुक्त राष्ट्र तक को हस्तक्षेप करना पड़ा और सुरक्षा परिषद में इसके खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित किया गया। हालांकि भारत ने स्पष्ट कहा कि उसका उद्देश्य परमाणु परीक्षण शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है और वह इसके जरिए नाभिकीय हथियार बनाने का इरादा नहीं रखता है।
परमाणु परीक्षण का है लंबा सफर
भारत के परमाणु शक्ति संपन्न होने की दिशा में काम तो वर्ष 1945 में ही शुरू हो गया था, जब होमी जहांगीर भाभा ने इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की नींव रखी। लेकिन सही मायनों में इस दिशा में भारत की सक्रियता 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद बढ़ी। इस युद्ध में भारत को शर्मनाक तरीके से अपने कई इलाके चीन के हाथों गंवाने पड़े थे। इसके बाद 1964 में चीन ने परमाणु परीक्षण कर महाद्वीप में अपनी धौंसपंट्टी और तेज कर दी। दुश्मन पड़ोसी की ये हरकतें भारत को चिंतित और विचलित कर देने वाली थीं। लिहाजा सरकार के निर्देश पर भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र ने प्लूटोनियम व अन्य बम उपकरण विकसित करने की दिशा में सोचना शुरू किया। इसी बीच दक्षिण एशियाई की भू-राजनीति में दो बड़ी घटनाएं और हो गई।
1965 में भारत व पाकिस्तान के बीच भीषण युद्ध हुआ और इसी दौरान चीन ने थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस विकसित कर परमाणु शक्ति संपन्न होने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ा लिया था। इन वर्षो में भारत में राजनीतिक नेतृत्व में भी परिवर्तन आ चुका था और प्रधानमंत्री के पद पर श्रीमती इंदिरा गांधी आसीन हो चुकी थीं। परमाणु कार्यक्रम भी होमी भाभा से चलकर विक्रम साराभाई से होता हुआ प्रसिद्ध वैज्ञानिक राजा रमन्ना के हाथों में आ चुका था।
इंदिरा ने पहले परमाणु परीक्षण को दी हरी झंडी
इन्हीं भू राजनीतिक परिस्थितियों के बीच भारत ने अपने परमाणु कार्यक्रम को तेज किया और 1972 में इसमें दक्षता प्राप्त कर ली। 1974 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के पहले परमाणु परीक्षण के लिए हरी झंडी दे दी। इसके लिए स्थान चुना गया राजस्थान के जैसलमेर जिले में स्थित छोटे से शहर पोखरण के निकट का रेगिस्तान और इस अभियान का नाम दिया गया मुस्कुराते बुद्ध। इस नाम को चुने जाने के पीछे यह स्पष्ट दृष्टि थी कि यह कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्य के लिए है।
18 मई 1974 को यह परीक्षण हुआ। परीक्षण से पूरी दुनिया चौंक उठी, क्योंकि सुरक्षा परिषद में बैठी दुनिया की पांच महाशक्तियों से इतर भारत परमाणु शक्ति बनने वाला पहला देश बन चुका था। इस परीक्षण में राजा रमन्ना के नेतृत्व में भारत के मेधावी परमाणु वैज्ञानिकों पीके आयंगर, राजगोपाल चिदंबरम, नागपत्तानम सांबशिवा वेंकटेशन, वामन दत्तात्रेय पंट्टवर्धन, होमी एन. सेठना आदि की टीम ने अपनी पूरी मेधा झोंक दी। इस टीम के राजगोपाल चिदंबरम बाद में एपीजे अब्दुल कलाम के साथ पोखरण-2 के सूत्रधारों में थे। भारत के परमाणु परीक्षण की पूरी दुनिया में प्रतिक्रिया हुई। पाकिस्तान ने इसे धमकी भरी कार्रवाई करार दिया तो कुछ अन्य देशों ने परमाणु होड़ बढ़ाने वाला बताया, जबकि कुछ अन्य चुप्पी साध गए।
परमाणु परीक्षण पर अटल सरकार का बड़ा फैसला
पहले परमाणु परीक्षण के बाद 24 साल तक अंतरराष्ट्रीय दबाव व राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति के अभाव में भारत के परमाणु कार्यक्रम की दिशा में कोई बड़ी हलचल नहीं हुई। 1998 में केंद्रीय सत्ता में राजनीतिक परिवर्तन हुआ और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। वाजपेयी ने अपने चुनाव अभियान में भारत को बड़ी परमाणु शक्ति बनाने का नारा दिया था। सत्ता में आने के दो महीने के अंदर ही उन्होंने अपने इस वादे को मूर्त रूप देने के लिए परमाणु वैज्ञानिकों को यथाशीघ्र दूसरे परमाणु परीक्षण की तैयारी के निर्देश दिए।
चूंकि इससे पूर्व 1995 में भारत की परमाणु तैयारियों की भनक अमेरिका को लग चुकी थी। इसलिए इस बार अभियान की तैयारियों को पूरी तरह गोपनीय रखा गया। यहां तक की केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई सदस्यों तक को इसके बारे में पता नहीं था। पूरे अभियान की रणनीति में कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिक, सैन्य अधिकारी व राजनेता ही शामिल थे।
एपीजे अब्दुल कलाम [बाद में भारत के राष्ट्रपति] तथा राजगोपाल चिदंबरम अभियान के समन्वयक बनाए गए। उनके साथ डॉ. अनिल काकोडकर समेत आठ वैज्ञानिकों की टीम सहयोग कर रही थी। अभियान की जमीनी तैयारियों में 58 इंजीनियर्स रेजीमेंट ने सहयोग किया।
चूंकि अब भारत की परमाणु दक्षता उच्च स्तरीय हो चुकी थी और दुनिया को यह दिखाने का समय आ चुका था कि वह भारत की ताकत को कमतर करके न आंके, इसलिए इस अभियान का नाम शक्ति रखा गया। अंतत: 11 मई व इसके बाद भारत ने पोखरण में दूसरे परमाणु परीक्षण किए। कुल पांच डिवाइस का परीक्षण किया गया। इस परीक्षण की सफलता के लिए प्रधानमंत्री ने पूरी टीम को बधाई दी।
सिर्फ इजराइल ने किया पोखरण-2 का समर्थन
इस परीक्षण की सफलता पर भारतीय जनता ने भरपूर प्रसन्नता जताई। लेकिन दुनिया के दूसरे मुल्कों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। एकमात्र इजरायल ही ऐसा देश था, जिसने भारत के इस परीक्षण का समर्थन किया। इन परीक्षणों के ठीक 17 दिन बाद पाकिस्तान ने क्रमश: 28 व 30 मई को चगाई-1 व चगाई- 2 के नाम से अपने परमाणु परीक्षण किए। जापान व अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लागू कर दिए। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव सं.1172 पारित कर भारत व पाकिस्तान की निंदा की।
दुनिया की यह प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक थीं, लेकिन अब भारत के परमाणु महाशक्ति बनने का मार्ग प्रशस्त हो चुका था और वह दिन लदने जा रहे थे जब परमाणु क्लब में बैठे पांच देश अपनी आंखों के इशारे से दुनिया की तकदीर को बदलते थे। पोखरण-1 व 2 ने हमें दुनिया के सामने सीना तानकर चलने की हिम्मत दी, हौसला दिया। इस बड़ी दास्तान के लिए छोटा सा पोखरण हमेशा याद किया जाएगा।