नई दिल्ली। अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के लड़ाई लड़ने वाले देश के वश्तून नेता खान अब्दुल गफ्फार खां का जन्म 6 फरवरी 1890 को हुआ था। महात्मा गांधी की तरह ही वह भी अहिंसा के पुजारी थे, इसी खास वजह से महात्मा गांधी के एक दोस्त ने उन्हें फ्रंटियर गांधी का उपनाम दिया था। बता दें कि, खान अब्दुल गफ्फार खां को बाचा खान नाम से भी जाना जाता है। अहिंसा के हथियार से अंग्रेजों पर वार करने वाले और खुदाई खिदमतगार आंदोलन शुरू करने वाले खान अब्दुल गफ्फार खां लोगों के बीच काफी लोकप्रिय थे। इस फ्रंटियर गांधी ने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए अहिंसा को हथियार बनाया।
महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह में शामिल होने वाले बाचा खान को 23 अप्रैल 1923 को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था। उनके समर्थन में बड़ी संख्या में लोग पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में इकट्ठा हो गए थे। अंग्रेजों ने इन निहत्थे लोगों पर मशीन गन से गोली चलाने का आदेश दे दिया। इस नरसंहार में 200-250 लोगों की शहादत हुई। बाद में चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके सैनिकों को कोर्ट मार्शल की कार्रवाई झेलनी पड़ी और उनमें से कईयों को उम्र कैद की सजा हुई।
खान अब्दुल गफ्फार खां ने साल 1929 में खुदाई खिदमतगार (सर्वेंट ऑफ गॉड) आंदोलन शुरू किया। आम लोगों की भाषा में वे सुर्ख पोश थे। खुदाई खिदमतागर, गांधी जी के अहिंसात्मक आंदोलन से प्रेरित था। इस आंदोलन की सफलता से अंग्रेज शासक तिलमिला उठे और उन्होंने बाचा खान और उनके समर्थकों पर जमकर जुल्म ढाए।
खान अब्दुल गफ्फार खां देश के बंटवारे के बिल्कुल खिलाफ थे। उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अलग पाकिस्तान की मांग का विरोध किया था और जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की मांग को स्वीकार कर लिया तो इस फ्रंटियर गांधी ने दुख में कहा था - 'आपने तो हमें भेड़ियों के सामने फेंक दिया है।' जून 1947 में खान साहब और उनका खुदाई खिदमतगार एक बन्नू रेजोल्यूशन लेकर आया, जिसमें मांग की गई कि पाकिस्तान के साथ मिलाए जाने की बजाय पश्तूनों के लिए अलग देश पश्तूनिस्तान बनाया जाए। हालांकि अंग्रेजों ने उनकी इस मांग को खारिज कर दिया।
देश के बंटवारे के बाद जब भारत और पाकिस्तान अलग-अलग हुए तो खान अब्दुल गफ्फार खां पाकिस्तान चले गए। लेकिन साल 1948 से 1956 के बीच पाकिस्तान सरकार ने उन्हें कई बार गिरफ्तार किया। साल 1956 में पाकिस्तान सरकार पश्चिमी पाकिस्तान के सभी प्रोविंस को जोड़कर एक बड़ा राज्य बनाने का काम कर रही थी और खान साहब सरकार के इस कदम के खिलाफ खड़े हो गए। इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
1960-70 के दशकों में उन्होंने ज्यादातर वक्त जेल या फिर निर्वासन में गुजारा। 20 जनवरी 1988 में जब उनका निधन हुआ उस समय भी वह पेशावर में हाउस अरेस्ट थे। उनकी इच्छा के अनुसार मृत्यु के बाद उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया गया।
खान अब्दुल गफ्फार खां को अंतिम विदायी देने के लिए हजारों लोग इकट्ठा हुए थे, लेकिन दो बम विस्फोटों ने गमगीन माहौल को और भी गमगीन बना दिया। इन बम धमाकों में 15 लोगों की जान चली गई थी। यह भी गौर करने वाली बात है कि अफगानिस्तान में उस वक्त सोवियत संघ की कम्यूनिस्ट आर्मी और मुजाहिद्दीनों के बीच जंग चल रही थी। लेकिन फ्रंटियर गांधी को सुपुर्द-ए खाक किए जाने के दौरान दोनों तरफ से सीज फायर की घोषणा की गई थी।