कौशल किशोर मिश्रा, पटना। आज फिल्मों में बोल्ड सीन्स की भरमार रहती है। लेकिन, ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। दरअसल, फिल्मों में बोल्डनेस व उन्मुक्तता आरंभिक दिनों से ही है। 1920 में भी चुंबन के दृश्यों या अंग प्रदर्शन वाले कॉस्ट्यूम पर भी रोक नहीं थी। उन दिनों भी 'रसीली रानी' व 'जगमगाती जवानी' नाम की फिल्में बनती थीं। सेंसर बोर्ड केवल यह देखता था कि फिल्म में अंग्रेजी शासन के खिलाफ कोई बात नहीं हो।
पटकथा लेखक और 'दामुल', 'हिप-हिप हुर्रे' जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुके डॉ. नरेंद्र नाथ पांडेय बताते हैं कि देश में सबसे पहले सेंसर कोड 1918 में तैयार किए गए थे। उस समय अंग्रेजों का शासन था। सेंसर बोर्ड बस यह देखता था कि फिल्म में कोई ऐसा दृश्य या बात न हो जो देश को अंग्रेजों से आजाद करने के लिए प्रेरित करे। फिल्मों में चुंबन के दृश्य या अन्य किसी प्रकार की उन्मुक्तता पर रोक नहीं थी।
पांडेय पटना विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे शनिवार की शाम पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में 'हिंदी फिल्म : उद्भव एवं विकास' पर व्याख्यान दे रहे थे।
उनके अनुसार भले ही अपने 100 साल से अधिक के इतिहास में तकनीकी लिहाज से फिल्म निर्माण काफी उन्नत हो गया है, लेकिन पटकथा एवं निर्देशन के नजरिए से 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक आज की तुलना में बेहतर थे। सच कहें तो आज अच्छी फिल्में बन ही नहीं रही हैं।
फिल्मों के हिंदी के साथ अंग्रेजी नाम
1920 के दशक में फिल्मों के दोहरे नाम होते थे। हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों नामों से फिल्म रिलीज होती थीं। फिल्म 'रसीली रानी' का अंग्रेजी नाम था 'ट्रायंफ ऑफ लव' तो वहीं 1921 की फिल्म 'काला नाग' का अंग्रेजी नाम था 'ट्रायंफ ऑफ जस्टिस'। 'जगमगाती जवानी' का नाम था 'स्पार्कलिंग यूथ' तो 1921 में बंगाल में बनी फिल्म 'बिलत फेरत' का अंग्रेजी नाम था 'इंग्लैंड रिटर्न्ड'।
महिलाएं नहीं करती थीं अभिनय
हिंदी फिल्मों के निर्माण के शुरुआती वर्षों में महिलाओं के लिए फिल्म में काम करना शर्मनाक माना जाता था। इसे हेय दृष्टि से देखा जाता था। फिल्म के लिए अभिनेत्री ढूंढऩा काफी मुश्किल काम था। 1917 की फिल्म 'लंका दहन' में राम और सीता की भूमिका पुरुष कलाकार ए. सालुंके ने निभाई थी। फिल्म में अपने अभिनय से उस वक्त वे देश के सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता के साथ ही अभिनेत्री भी बन गए।
बोलती फिल्मों के कारण कलाकारों की छंटनी
भारतीय फिल्मों के इतिहास का अवलोकन करिए तो कई दिलचस्प तथ्य उजागर होते हैं। भारत की प्रथम बोलने वाली फिल्म (टॉकीज) थी 1931 की 'आलम आरा'। उस वक्त प्लेबैक सिंगिंग नहीं होती थी। तब हीरो-हीरोइन के लिए यह जरूरी हो गया कि न केवल डायलॉग अदायगी बल्कि उन पर फिल्माए गए गाने भी वे खुद ही गाएं।
इसके लिए आवाज का अच्छा होना भी काफी जरूरी हो गया। 1931-35 के इस दौर में काफी कलाकारों की फिल्म जगत से इसलिए छंटनी हो गई, क्योंकि वे आवाज के धनी नहीं थे।