हरिद्वार। बीयर बार संचालक सचिन दत्ता के स्वामी सच्चिदानंद गिरि के रूप में महामंडलेश्वर बनने के बाद मचे बवाल के बीच यह बहस भी तेज हो गई है कि इस महत्वपूर्ण पदवी के लिए परंपराओं और नियमों को ताक पर रखा जा रहा है।
बताया जा रहा है कि 31 जुलाई को गुरु पूर्णिंमा के दिन सचिन गृहस्थ जीवन से संन्यासी बने और उसी दिन उन्हें महामंडलेश्वर भी बना दिया गया। नई अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि ने भी स्वीकार किया कि दोनों रस्में गुरु पूर्णिंमा के दिन ही निभाई गईं। वहीं नियमों के मुताबिक महामंडलेश्वर बनने के लिए 10 साल धर्म सेवा को जरूरी बताया जा रहा है।
महानिर्वाणी अखाड़े के सचिव महंत रविंद्रपुरी महाराज के अनुसार संन्यास की प्रक्रिया जटिल है और महामंडलेश्वर बनने के लिए संन्यासी होना अनिवार्य है। उन्होंने बताया कि संन्यास की प्रक्रिया दो तरीके से संपन्न कराई जाती है। पहली बाल्यकाल और दूसरी गृहस्थ आश्रम की जिम्मेदारियां पूरी करने के बाद।
गृहस्थ आश्रम से वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश के दौरान व्यक्ति को किसी अखाड़े से जुड़ना चाहिए। बड़ा अखाड़ा उदासीन के महामंडलेश्वर स्वामी हरिचेतनानंद बताते हैं कि किसी भी व्यक्ति को अखाड़ों में कम से कम 10 वर्ष तक धर्म और लोक सेवा करनी होती है। इन लोगों के आचार-व्यवहार पर अखाड़े के प्रमुख संतों की समिति नजर रखती है।
समिति के मानदंडों पर खरा उतरने के बाद अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर कुंभ में विधि विधान के साथ संन्यास दीक्षा देते हैं। संन्यास दीक्षा में व्यक्ति को अपना मुंडन संस्कार व पिंडदान करना होता है। पिंडदान के बाद संन्यासी बनाने की प्रक्रिया का सबसे अहम पड़ाव है "विजयाहोम"।
इसे आचार्य महामंडलेश्वर संपादित करते हैं। इस प्रक्रिया को सार्वजनिक नहीं किया जाता है। दूसरी ओर भारत साधु समाज के राष्ट्रीय सचिव स्वामी ऋषिश्वरानंद ने बताया कि अखाड़े में वास के दौरान उस व्यक्ति को वानप्रस्थ आश्रम के नियम-कायदे का धर्म सम्मत तरीके से पालन करते हुए धर्म, शास्त्र, वेद, पुराण और अन्य धर्मग्रंथों का पठन-पाठन करना होता है।
संन्यास दीक्षा पूरी करने के बाद वह अखाड़े में फिर से सेवा कार्य करता है और इस दौरान अखाड़े के प्रमुख संतों की समिति उसके आचार व्यवहार पर नजर रखती है। इसके बाद यदि वह मानदंडों में खरा उतरता है तो समिति की सिफारिश पर उसे महामंडलेश्वर की पदवी के लिए चुना जाता है।