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डिजिटल डेस्क। सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि कोई भी किरायेदार, जिसने किसी मकान मालिक से किरायानामा (Rent Deed) के तहत मकान या दुकान किराए पर ली है, वह बाद में उस संपत्ति पर मालिकाना हक का दावा नहीं कर सकता। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर किरायेदार कई दशकों तक उसी व्यक्ति या उसके वारिसों को किराया देता रहा है, तो वह अब उस संपत्ति पर स्वामित्व का सवाल नहीं उठा सकता। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की बेंच न्यायमूर्ति जे.के. महेश्वरी और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन ने 1953 से चल रहे सात दशक पुराने विवाद को निपटाते हुए सुनाया।
मामले की पृष्ठभूमि
रिपोर्ट के अनुसार, यह विवाद रामजी दास नामक व्यक्ति और उनके किरायेदारों के उत्तराधिकारियों के बीच था। रामजी दास की बहू (वादी) ने अपने ससुर की 12 मई 1999 की वसीयत के आधार पर विवादित दुकान पर स्वामित्व का दावा किया और अपने मिठाई व नमकीन के व्यवसाय के विस्तार के लिए दुकान खाली कराने की मांग की। वहीं, किरायेदारों के उत्तराधिकारियों ने यह दावा खारिज कर दिया। उनका कहना था कि रामजी दास मालिक नहीं थे और वसीयत फर्जी है। उन्होंने कहा कि दुकान पर हक रामजी दास के चाचा सुआ लाल का था।
निचली अदालतों और सुप्रीम कोर्ट का फैसला
ट्रायल कोर्ट, अपीलीय अदालत और हाईकोर्ट सभी ने वादी की याचिका खारिज कर दी थी, यह कहते हुए कि स्वामित्व सिद्ध नहीं हुआ और वसीयत संदिग्ध है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ये निष्कर्ष भ्रामक और साक्ष्यों के विपरीत हैं। अदालत ने वर्ष 1953 की रिलिंक्विशमेंट डीड (त्यागपत्र) को महत्वपूर्ण माना, जिसके तहत सुआ लाल ने संपत्ति का अधिकार रामजी दास को सौंपा था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस दस्तावेज से स्पष्ट है कि रामजी दास वैध मालिक थे और यह भी साबित हुआ कि किरायेदारों ने 1953 से लेकर रामजी दास और उनके पुत्रों को किराया दिया, जिससे मालिकाना संबंध स्पष्ट है।
वसीयत और कानूनी मान्यता
अदालत ने यह भी कहा कि 2018 में जारी प्रोबेट ऑर्डर (वसीयत की वैधता प्रमाणित करने वाला आदेश) को हाईकोर्ट ने गलत तरीके से नजरअंदाज़ किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “सिर्फ इसलिए वसीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता कि उसमें पत्नी का उल्लेख नहीं है। एक बार वसीयत प्रमाणित हो जाए, तो उससे प्राप्त स्वामित्व कानूनी रूप से मान्य होता है।”
व्यवसाय विस्तार और सच्ची आवश्यकता
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि वादी का परिवार पहले से पास की दुकान में मिठाई और नमकीन का व्यवसाय चला रहा था और विवादित दुकान की आवश्यकता व्यवसाय विस्तार के लिए वास्तविक (bona fide) थी। अदालत ने वादी के पक्ष में फैसला सुनाते हुए किरायेदारों को दुकान खाली करने का आदेश दिया। साथ ही जनवरी 2000 से बकाया किराया वसूलने का निर्देश दिया गया। हालांकि, कोर्ट ने किरायेदारों को छह महीने का समय दिया है, बशर्ते वे दो सप्ताह में शपथपत्र देकर यह आश्वासन दें कि एक महीने में किराया चुका देंगे और छह महीने में दुकान खाली करेंगे। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो मकान मालिक को सारांश निष्कासन (summary eviction) की कार्रवाई का अधिकार होगा।