
योगेंद्र शर्मा। सत्ता पर काबिज होने की जीद, मजहब का जुनून और फिरंगियों की फितरती चालों की वजह से 14 अगस्त 1947 को एक नए मुल्क ने दुनिया के नक्शे में अपना मुकाम बना लिया। सरहदों को तय करने की जिम्मेदारी एक फिरंगी रेडक्लिफ को दी गई और उन्होंने हिंदुस्तान की सरजमी पर जाति, धर्म, संस्कृति आदि की जानकारी के बगैर कागजों पर दोनों देशों की सीमा को तय कर दिया। अब बारी थी साजो-सामान की, जिसका बंटवारा भी तय समय सीमा में तयशुदा मापदंडों के मुताबिक किया जाना था। इसके लिए जुबानी जंग से लेकर हर तरह के हथकंडे अपनाए गए और आखिरकार बड़ी मशक्कतों के बाद यह मसला भी सुलझ गया।
दो लोगों को सौंपी गई थी भारत-पाक में संपत्ति के बंटवारे की जवाबदारी
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देश के बंटवारे में अभी 73 दिन बाकी थे। लॉर्ड माउंटबैटन ने रोजमर्रा के काम के लिए एक कैलेंडर दिल्ली के हर सरकारी ऑफिस में लगा दिया था, ताकि समयसीमा और काम की संजीदगी का ख्याल रहे। दिल्ली में दो लोगों को धन संपत्ति के बंटवारे, उसके नियमों और शर्तों को तय करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसमें भारत के प्रतिनिधि थे एच. एम. पटेल और पाकिस्तान के पैरोकार थे चौधरी मुहम्मद अली। जून से लेकर अगस्त तक दोनों धन-दौलत और कागज के छोट-छोटे टुकड़ों के बटवारे के लिए जूझते रहे। दोनों विलायती सोच और अंग्रेजी कायदे-कानून के साथ लालफीतों में बंधी फाइलों में उलझे रहते थे।
सबसे पहला दावा देश के नाम पर किया गया। भारत नाम पर हिंदुस्तान ने दावा जताया और कहा कि अब मुल्क दो टुकड़ों में बंट गया है इसलिए 'भारत' नाम पर भारत का अधिकार रहेगा। इस पर भी आपत्ति जताई गई, लेकिन आखिरकर इस प्रस्ताव को मान लिया गया।
अब बारी आई धन-संपत्ति, कर्ज, नागालैंड जैसी छोटी जगहों में किसी सरकारी कार्यालय में रखी हुई संदूक और डाक टिकटों के बटवारे की। वाद-विवाद के बीच नौबत यहां तक आ गई कि एच. एम. पटेल और मुहम्मद अली दोनों को सरदार पटेल के घर में बंद कर दिया और कह दिया कि जब तक सभी विवाद सुलझ न जाए, तब तक उनको वहीं रहना पड़ेगा। आखिरकर समझौता भी हो गया।
मयखाना पूरा भारत के हिस्से में आया
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समझौते की शर्तों के मुताबिक, बैंकों में मौजूद धन का 82.5 फीसद हिंदुस्तान को और 17.5 फीसद पाकिस्तान को मिला। चल संपत्ति का 80 फीसद भारत को और 20 फीसद पाकिस्तान को मिला। सामान के बंटवारे के दौरान सिर्फ बहस ही नहीं हुई बल्कि लड़ाइयां भी हुईं। अच्छे टाइपराइटर छुपा दिए गए। मेज-कूर्सियों को बदल दिया गया। छतरी के स्टैंड से लेकर कलमदान तक के लिए शब्दों में तल्खी देखी गई। बस एक चीज ऐसी थी जिसको लेकर न जूतम-पैजार हुआ न कोई बहस हुई। वह चीज पूरी भारत को बगैर ना नुकूर के सौंप दी गई। वह चीज थी शराब, लेकिन शराब के बदले में पाकिस्तान के खाते में कुछ रकम डाल दी जाती थी।
लाइब्रेरी की किताबों का फाड़कर किया गया बंटवारा
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सबसे ज्यादा झगड़ा भारत की लाइब्रेरियों की किताबों को लेकर हुआ। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका का एक हिस्सा भारत को दूसरा पाकिस्तान को तो तीसरा फिर भारत को मिल गया, लेकिन जब शब्दकोश की बारी आई तो उसका फैसला फाड़कर किया गया और उसको दो हिस्सों में बाट दिया गया।
कुछ चीजें ऐसी भी थी जिनका विभाजन नहीं हो सकता था। गृह विभाग में मौजूद गुप्तचर विभाग के अफसरों ने साफ कह दिया कि उनके विभाग की एक भी फाइल तो दूर दवात भी नहीं दी जाएगी। दो चीजें ऐसी भी थीं जिनसे किसी देश की पहचान होती है। डाक टिकट और करेंसी। भारत ने अपने नए पड़ोसी के साथ सरकारी प्रेस को साझा करने से इंकार कर दिया। लिहाजा अकड़ और धौंस-दपट के साथ बने मुल्क को हिंदुस्तानी नोट पर पाकिस्तानी मुहर लगाकर काम चलाना पड़ा।
वाइसराय की शानौ- शौकत और शाही रुतबे के अनुरुप उनके सैर-सपाटे के लिए बनाई गई सुनहरी और सफेद रेलगाड़ी भारत के हिस्से में आई तो भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ और पाकिस्तान के गर्वनर की निजी गाड़ियां पाकिस्तान को मिल गई।
भारत को मिली 'सुनहरी' तो पाक को मिली 'रुपहली '
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सबसे दिलचस्प लड़ाई वायसराय भवन, जिसको अब राष्ट्रपति भवन कहा जाता है, के अस्तबल को लेकर हुई। उस वक्त अस्तबल में बारह घोड़ागाड़ियां यानी बग्घियां थीं, जिनमें सोने-चांदी का उम्दा काम किया गया था। गद्दों पर जरी की महीन कारिगरी की गई थी और बेहतर बेल्जियम ग्लास की सजावट से उसमें ब्रिटिश राज का अक्स उभरने के साथ हिंदुस्तानी रजवाड़ों की शानौशौकत की झलक भी दिखलाई देती थी। इन बग्घियों में छह सुनहरी थी और छह रुपहली थी। इनको तोड़कर बांटने की इच्छा किसी की भी नहीं थी। उस वक्त माउंटबेटन के ए.डी.सी. लेफ्टिनेंट कमांडर पीटर होज ने सुझाव दिया कि सिक्का उछालकर इस बात का फैसला कर लिया जाए कि किस मुल्क को घोड़ागाड़ियों का कौन-सा सेट मिलेगा।
पाकिस्तान के कमांडर-मेजर याकूब खां और वायसराय के बॉडीगार्ड के कमांडर-मेजर गोविंदसिंह खड़े हुए थे। सिक्का उछाला गया और मेजर गोविंदसिंह खुश होकर जोर से चिल्लाए। किस्मत ने भारत का साथ दिया था और सुनहरी गाड़ियां, जो सोने-चांदी जड़ित थी भारत को मिल गई थी।
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साजो-सामान के साथ जमीन के टुकड़े पर सरहदें बट गई। दिलों का बटवारा हो गया, लेकिन बदलते वक्त के साथ भी रंजिशों और प्रतिशोध का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। हिंदुस्तान ने बड़ा दिल दिखाया और आजादी के बाद भी पाकिस्तान की गैजरूरी मांगों को पूरा किया गया, जिसमें दुनिया का सबसे गैरजिम्मेदाराना समझैता सिंधू और उसकी सहायक नदियों का है। कच्छ के रण का हिस्सा मन मसोस कर पाकिस्तान को देना पड़ा लेकिन हकीकत यही है कि जैसे-जैसे इलाज किया गया, धर्मांध देश का मर्ज भी बढ़ता चला गया।