देवशंकर अवस्थी, जबलपुर। सत्ता बदलने के साथ-साथ जबलपुर का नाम भी बदलता रहा। गोंडवाना काल में गढ़ा, कलचुरिकाल में त्रिपुरी और कभी जाबालिपुरम् तो कभी जाबालिपत्तनम् के नाम से चर्चित रहा जबलपुर। महाभारत काल में चेदि नरेश शिशुपाल की राजधानी भी यही नगर रहा। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण भी यहां पर दो बार आ चुके हैं। यह नगर भगवान श्रीकृष्ण की बुआ का घर भी है। चेदि नरेश दमघोष से भगवान श्रीकृष्ण की बुआ श्रुतश्रुवा का विवाह हुआ था। श्रुतश्रुवा, वसुदेव की बहन थीं।
बुआ को दिया वचन
पौराणिक कथाओं के मुताबिक श्रुतश्रुवा के बेटे शिशुपाल के चार हाथ थे। शिशुपाल को श्राप था कि जो भी उसे पहली बार देखे और शिशुपाल के दो हाथ शरीर से गिर जाएं, वही शिशुपाल का वध करेगा। भगवान श्रीकृष्ण उज्जैन में संदीपनि आश्रम से होकर अपनी बुआ के घर चेदि आए। जैसे ही श्रीकृष्ण की दृष्टि शिशुपाल पर पड़ी, उसकी दोनों भुजाएं कटकर अलग हो गईं। बुआ श्रुतश्रुवा ने समझ लिया कि श्रीकृष्ण के हाथों ही शिशुपाल का वध होगा। बुआ ने श्रीकृष्ण को श्राप के बारे में बताया और कहा कि वे किसी भी कीमत पर शिशुपाल का वध नहीं करेंगे।
भगवान श्रीकृष्ण ने सहज ही कहा..शिशुपाल मेरा फुफेरा भाई है..इसके लिए तो सौ गल्तियां माफ हैं। उधर, रुक्मी अपनी बहन रुकमणि का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था लेकिन श्रीकृष्ण ने रुक्मणि से ब्याह रचा लिया। इससे रुक्मी और शिशुपाल दोनों ही श्रीकृष्ण से शत्रुता रखते थे। युधिष्ठर ने राजसूय यज्ञ किया तो श्रीकृष्ण को उच्च आसन पर बैठा देख शिशुपाल भड़क गया। वह वैसे भी कौरवों का समर्थक रहा।
उसने श्रीकृष्ण का घोर अपमान किया। उधर, शिशुपाल कड़वे शब्दों को बकता जा रहा था और श्रीकृष्ण अपनी बुआ को दिए वचनों को निभा रहे थे। और जैसे ही अपमानसूचक शब्दों की संख्या सौ हुई उसके बाद जब शिशुपाल नहीं रुका तो श्रीकृष्ण ने चक्र से उसका वध कर दिया। इतिहासकार राजकुमार गुप्ता के अनुसार बाद में शिशुपाल के पुत्र धृतकेतु को लेने श्रीकृष्ण स्वयं चेदि आए, तब धृतकेतु ने पांडवों के पक्ष में महाभारत का युद्घ लड़ा था।
गढ़ा यानी लघु काशी-वृंदावन
यह धरती रानी दुर्गावती के समय भी श्रीकृष्ण भक्ति से सराबोर रही। पुष्टिमार्ग के संस्थापक वल्लभाचार्य के बाद 1551 में उनके बड़े पुत्र विठ्ठलनाथ का गोंडवाना आगमन हुआ। स्वयं रानी दुर्गावती ने उनका स्वागत किया। देवताल में विठ्ठलनाथ की बैठक जमी, जिसे आज भी गोसाईंजी की बैठक कहा जाता है। इसी समय राधा वल्लभ संप्रदाय के चतुर्भुज और दामोदरदास ने गढ़ा में पचमठा मंदिर का निर्माण कराया और यमुना नदी से प्राप्त श्रीकृष्ण की प्रतिमा को यहां लाकर स्थापित किया।
उसके बाद पचमठा में इतने धार्मिक आयोजन हुए कि इसे लघु काशी-वृंदावन कहा जाने लगा। 1680 के आसपास औरंगजेब की सत्ता के समय गढ़ा पर संकट के बादल छाए। औरंगजेब की सेना जब दक्षिण में गोलकुंडा को जीतने निकली, तब गढ़ा में काफी लूटपाट की। मंदिर व श्रीकृष्ण की मूर्ति को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए लोगों ने पचमठा मंदिर को पेड़ों व मिट्टी से ढक दिया था।
लम्हेटा का राधाकृष्ण मठ
16वीं शताब्दी में लम्हेटाघाट के तट पर राधाकृष्ण मठ का निर्माण कराया गया। धन के लालच में इस मंदिर को भी उजाड़ा गया। यहां की भगवान कृष्ण की मूर्ति अब पास के दूसरे मंदिर में रखी है, जबकि मंदिर खण्डहर हो चुका है।
बिड़ला और बजाज आए
शहर में भगवान श्रीकृष्ण के अनेक मंदिरों का निर्माण समय-समय पर होता रहा। हनुमानताल के मंदिर में केशव की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। 1866 में बखरी परिवार के पूर्वज सेठ सेवाराम के सौजन्य से हनुमानताल के किनारे गोपाललालजी का भव्य मंदिर बनवाया गया। इस मंदिर के लोकार्पण में मथुरा से संत गिरधर का आगमन हुआ था।
सुनरहाई और गढ़ा के राधाकृष्ण मंदिर भी करीब डेढ़ सौ वर्ष प्राचीन हैं। इसी तरह ब्यौहार राजेन्द्रसिंह के साठिया कुआं स्थित निवास पर 1928 में घनश्यामदास बिड़ला और जमनालाल बजाज का आगमन हुआ। उस समय बिड़ला और बजाज के आग्रह पर ब्यौहार राजेन्द्रसिंह के निवास में स्थित राधाकृष्ण के मंदिर को सभी के लिए खोल दिया गया था।