मधु शर्मा, बिलासपुर। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर की डॉ. पुष्पा दीक्षित को उनके शिष्य माताजी कहते हैं। वे देश ही नहीं बल्कि विदेश तक देववाणी संस्कृत की अलख जगा रही हैं। उनके पास शिक्षा ग्रहण करने अमेरिका, चीन, बांग्लादेश समेत तमाम देशों से आने वाले शिष्यों की सूची काफी लंबी है।
इसमें डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर के साथ ही एमबीए के विद्यार्थी भी शामिल हैं। उनकी आम बोलचाल की भाषा ही संस्कृत हो गई है। बिलासपुर के गोंड़पारा स्थित पाणिनीय शोध संस्थान की स्थापना 2001 में सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ. दीक्षित ने की। वे यहां गुरुकुल पद्धति से शिक्षा देती हैं।
इस वजह से उन्हें सभी माताजी कहते हैं। वे संस्कृत को जन-जन की भाषा बनाने कार्य कर रही हैं। उनके यहां नेपाल के 21 छात्रों के दल के साथ ही अमेरिका से श्रीनरेंद्रन, विश्वास बासुकी तथा डॉ. स्वरूप देव, तिब्बत से दावा ल्हासा, बांग्लादेश से लुब्ना मरियम, चीन से चाउ येन समेत कई लोग आ चुके हैं।
माताजी के पास बड़ी संख्या में एनआरआई भी अपने बच्चों को संस्कृत के साथ ही भारतीय परंपरा से जोड़ने के लिए आते हैं, जो महीनों रुककर शिक्षा ग्रहण करते हैं।
7000 किताबों का है संग्रह
पाणिनीय शोध संस्थान की अपनी लाइब्रेरी है। इसमें संस्कृत और वेद की करीब सात हजार किताबें संग्रहित हैं। डॉ.दीक्षित ने बताया कि कुछ किताबें उन्हें उनके पिता से विरासत के रूप में मिली हैं। वहीं कुछ किताबों को समय की मांग और जरूरत के आधार पर खरीदी हैं। वे हमेशा किसी भी विषय की तीन किताबों का सेट खरीदती हैं, ताकि बार-बार उपयोग से क्षति होने के बाद भी किताब उनकी लाइब्रेरी में सुरक्षित रहे।
संस्कृत व हिंदी में लिखी हैं कई किताबें
डॉ. दीक्षित ने संस्कृत के साथ ही हिंदी में कई किताबें लिखी हैं। इसके साथ ही संस्कृत में 40 अन्य ग्रंथ और हिंदी में दो काव्य भी लिखे हैं। इन सबसे ज्यादा लोकप्रिय संस्कृत को सरल और सहज भाव से समझने के लिए उनका लिखा पाणिनीय व्याकरण है। इसके साथ ही संस्कृत को समझने के लिए संस्कृत भारती की ओर से 46 घंटे की डीवीडी भी बनाई गई है।
मिले हैं कई सम्मान
डॉ.पुष्पा दीक्षित को संस्कृत में योगदान के लिए कई सम्मान मिले हैं। इसमें तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों मिला सम्मान व प्रमाण पत्र, उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय की ओर से महामहोपाध्याय की मानद उपाधि शामिल है। साथ ही वे वेद-वेदांग सम्मान, राजकुमारी पटनायक सम्मान, छत्तीसगढ़ राज्य अलंकरण, वाचस्पति उपाधि और संस्कृतात्मा सम्मान से भी सम्मानित हैं।
संस्कृत से हुआ आत्मबोध, इसलिए बदला नाम
डॉ. स्वरूप देव अमेरिकी मूल के हैं और वहां चिकित्सक हैं। उनका कहना है कि आत्मबोध होने पर संस्कृत व भारतीय संस्कृति का इतना असर हुआ कि उन्होंने अपना नाम भी परिवर्तित कर लिया। इसके साथ ही वे वेदों में बताए व्रत नियमों व भोजन पद्धति का पालन करते हैं।
उन्होंने बताया कि कई जगह संस्कृत सीखी, लेकिन माताजी के पास आकर सही ज्ञान मिला। अमेरिका में इंजीनियर विश्वास वासुकी का कहना है कि संस्कृत में भविष्य की संभावनाएं हैं। इसे सीखकर औरों को भी सिखाना है। इसके साथ ही कंप्यूटर की भाषा के रूप में विकसित करने की भी योजना है। वेदों से मन को शांति मिलती है। इस ज्ञान की गहराई को संस्कृत के बिना नहीं जाना जा सकता है। माताजी का व्याकरण कम दिनों में ही सहजता के साथ संस्कृत सीखने में मददगार हैं।