- राजयोगी ब्रह्मकुमार निकुंज जी
मोह में आदान के साथ प्रदान की शर्त जुड़ी रहती है. मसलन मोह से वशीभूत व्यक्ति सदैव यह सोचता है कि हमने उसके लिए यह किया इसलिए उसे हमारे साथ ऐसा करना ही चाहिए. जबकि सच्चे प्रेम में एक रस शीतल भर सुगंध पवन बहती रहती है.
यह एक सत्य हकीकत है कि इस दुनिया में हम जिसे भी अपना मानने लगते हैं, उससे न चाहते भी लगाव या मोह हो जाता है. धीरे- धीरे वह इस हद तक जा पहुंचता है, जहां ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि हम न उसे छोडऩा चाहते हैं और न उसमें से छूटना चाहते हैं.
विधाता ने मनुष्य आत्मा को निर्वाकारी, सरल और संतुष्ट जीवन जीने के लिए उत्पन्न किया, किंतु मनुष्यों ने अपने चारों ओर मोह का ऐसा माया जाल निर्मित्त कर दिया, जिससे स्वयं सृष्टि के निर्माता ‘परमपिता परमात्मा’ को इस धरा पर अवतरित होकर उसकी आंखों पर बंधी मोह की काली पट्टी को खोलने का कार्य करना पड़ा.
परमात्मा ने हमें सभी आत्माओं के साथ नि:स्वार्थ प्रेम करना सिखाया, किंतु अपनी अज्ञानतावश व देह के मिथ्या अभिमान के कारण हमने आत्मा को भूलकर देह व देह से मिलने वाले सुख की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया और तभी से हमारी अधोगति शुरू हुई.
यह बहुत ही आश्चर्य की बात है जो हममें से ज्यादातर लोग प्रेम और मोह को एक समान मानते है, जबकि हकीकत यह है कि इन दोनों में जमीन-आसमान जितना अंतर हैं. जी हां! वस्तुत: देखा जाए तो, व्यक्तियों अथवा वस्तुओं के प्रति इतनी आसक्ति होना कि उन्हें पाने अथवा अपने कब्जे में रखने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हो जाया जाए, स्पष्ट रूप से मोह है.
इसी प्रकार से जब हम व्यक्तिगत तौर पर किसी से आकर्षित होकर उससे इस कदर जुड़ जाते हैं कि उससे बिछडऩे की बात सोचने तक से हमें कष्ट होने लगता है तो यहभी मोह की स्थिति है क्योंकि हमारा मोह सदैव यह चाहता है कि हमारी प्रिय व्यक्ति या वस्तु का साथ हमसे छूटने न पाये, चाहे इसके लिए अपना अथवा उस प्रिय व्यक्ति का कितना ही अहित क्यों न हो.
मोह की यह मोटी बेड़ी हमें आनंद का अनुभव कराती है. मोह में आदान के साथ प्रदान की शर्त जुड़ी रहती है. मसलन, मोह से वशीभूत व्यक्ति सदैव यह सोचता है कि हमने उसके लिए यह किया इसलिए उसे हमारे साथ ऐसा करना ही चाहिए.
ऐसा लेखा-जोखा जहां भी लिखा जार हा होगा, वहां लाभ हानि के आधार पर संतोष अथवा आक्रोश भी व्यक्त किया जा रहा होगा. जबकि सच्चे प्रेम में ऐसे आंधी-तूफान कभी नहीं आते, बल्कि उसमें तो एक रस शीतल भर सुगंध पवन बहती रहती है.
स्मरण रहे! प्रेम देने के लिए किया जाता है, लेने के लिए नहीं और देते रहने में तो कोई बाधा ही नहीं. सारा झंझट तब शुरू होता है, जब हमारे मन में लेने की भावना उत्पन्न होती है.
जब वह चाहत पूर्ण नहीं होती, तब हमारा प्रेम नष्ट- भ्रष्ट हो जाता है. इसीलिए ही हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा हैकि जहां नि:स्वार्थ प्रेम है, वहां शांति, स्थिरता और प्रसन्नता है.
ऐसा परिष्कृत प्रेम ही आजके समय की आवश्यकता है. मनुष्य जीवन के सुंदरतम रूप की यदि कुछ अभिव्यक्ति हो सकती है, तो वह प्रेम में ही है इसीलिए कहा गया है कि यदि मनुष्य के जीवन से प्रेम को निकाल दिया जाए, तो मनुष्य जीवन, शुष्क, नीरस, सदा अतृप्त, उद्विग्न और अशांत बनकर रह जाएगा.
अपने उद्धार के लिए नि:स्वार्थ प्रेम करना सीखना होगा
जब तक हम स्वयं इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे कि मोह का यह मायाजाल हमारी ही अपनी मानसिक रुग्णता का परिणाम है, तब तकहम इससे बाहर नहीं निकल पाएंगे. अत: यदि हम अपना उद्धार चाहते हैं, तो हमें सभी प्रकार की इच्छा-कामनाओं का त्याग कर एक परमात्मा की तरह सभी आत्माओ से नि:स्वार्थ प्रेम करना सीखना होगा, अन्यथा हम मोह रूपी दलदल से कभी भी बहार निकल नहीं पाएंगे.