- देवदत्त पटनायक
मनुष्य मृत्यु को एक रहस्य की तरह देखता है और इसलिए उसने इसे समझने के लिए बहुत सी कथाएं गढ़ ली हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि मृत्यु के बाद भी कुछ ऐसा बचता है जिसे शांति में रहने की जरूरत है।
जब भी किसी राजनीतिज्ञ का निधन होता है तो इंटरनेट पर अधिकतर लोग उन्हें श्रद्धाजंलि देते हुए 'रिप' कहते हैं। यह 'रेस्ट इन पीस' का संक्षिप्त रूप है। 'रिप' बताता है कि आधुनिक समय में भी हम यह मानते हैं कि मृत्यु के बाद भी कुछ ऐसा जरूर बचता है जिसे शांति के साथ रहने की जरूरत होती है।
तात्पर्य यही है कि मृत्यु एक पूर्ण विराम नहीं है। भले ही वैज्ञानिक सोच इस बात की पुष्टि नहीं करती हो कि शरीर की मृत्यु के बाद भी कुछ बचा रहता है। आत्मा या भूत को लेकर सभी धार्मिक और रहस्यवादी विचार केवल निजी ही रहे हैं। 'रिप' किसी एक व्यक्ति का विचार ही है जरूरी नहीं है कि पूरी दुनिया इसमें यकीन करे।
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जानवर 'रिप' नहीं कहते। उनके पास इस तरह की कल्पना के लिए योग्यता नहीं होती। जानवर किसी को खोने पर थोड़ी देर के लिए दु:ख मनाते हैं और फिर अपने काम पर चल देते हैं। इनमें कोई भी मरने वाले की कब्र नहीं बनाता या स्मरण दिवस नहीं मनाता।
जानवरों के लिए मृत्यु एक सचाई है। मनुष्यों के लिए वह एक रहस्य है। और हमने इस रहस्य को गढ़ने के लिए बहुत सी कथाओं का सहारा भी लिया है। 'रिप' ईसाई और इस्लामिक पौराणिक कथाओं से आया है जहां मृत्यु के बाद आत्मा अंतिम समय तक, जिसे इस्लाम में कयामत और इसाई धर्म में जीसस का पुनर्आगमन कहा गया है, शुद्धिकरण के लिए इंतजार करती है। और तब जो आस्थावान होते हैं वे स्वर्ग में जाते हैं।
इस समय के बीच हम आशा करते हैं कि मृतक 'रेस्ट इन पीस' (शांति में रहता) है। मृत्यु के पश्चात जीवन की यह संकल्पना ग्रीक पौराणिक कथाओं और इसके भी पहले मिस्र की कथाओं से जुड़ती है। चीन के लोग पूर्वजों की धरती में विश्वास करते हैं जहां मृत्यु के बाद लोग जाते हैं।
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कुछ संस्कृतियों में मृत्युपरांत राजा और साधु ईश्वर और आत्माओं के रक्षक बन जाते हैं। कुछ मामलों में मृत्यु के पश्चात जीव फिर से जीवन में जाने से इनकार कर देते हैं और भूत बनकर जिंदा लोगों को परेशान करना पसंद करते हैं। जब वे ऐसा करते हैं तब भूत भगाने वाले की मदद लेना पड़ती है!
भारतीय पौराणिक कथाओं में- बौद्ध, जैन, हिंदू पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। वहां विश्राम करने या 'रिप' की कोई संकल्पना नहीं है लेकिन यहां शांति के लिए कामना जरूर है। आत्मा हमेशा एक यात्रा पर रहती है, वह जन्म और पुनर्जन्म के फेर में उलझी रहती है और यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि इतने ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती कि फिर से जन्म न लेना पड़े।
इन सभी पौराणिक कथाओं में खोज ही जन्म के रूप में सामने आती है। जीवन का अर्थ यह जानना है कि दुनिया का कामकाज किस तरह चलता है। शरीर का दाह संस्कार और अस्थियों का विसर्जन हिन्दुओं को इस बात की स्मृति दिलाता है कि शरीर का कोई अर्थ नहीं है। उन संस्कृतियों में जहां एक बार जन्म की मान्यता है वहां शव को संलेपन करके, ताबूत में ईश्वर की दिशा में मुंह करके रखा जाता है ताकि वह शांति से समय बिता सके।
प्राचीन मिस्र में मृत्यु के बाद की दिशा पश्चिम होती थी, ईसाई धर्म में वह पूर्व हो गई जो कि सूर्य के उगने की दिशा है। यहूदी धर्म में यह दिशा यरूशलम की तरफ होती है तो इस्लाम में मक्का की ओर। हिन्दू ताबूत की दिशा को दक्षिण में रखते हैं क्योंकि यही वैतरणी की दिशा मानी जाती है जिसके पार मृतकों की भूमि पितृलोक या यमलोक है जहां से हर कोई आखिरकर लौटता है। जो बुद्धिमान हैं वे कभी इस तरफ नहीं जाते। बौद्ध धर्म में उनकी मृत्यु निश्चित है।
यहां प्राकृतिक सचाई को स्वीकार करना कठिन रहा है। मानवीय सोच यही रही है कि दुनिया एक खास तरह से ही काम करती रहे। हम चाहते हैं कि दुनिया में समानता, मानवाधिकार, न्याय और सचाई सबकुछ रहे। हम मानते हैं कि धन, ताकत और प्रेम हमारी मुश्किलों को हल कर देगा।
हम लगातार उनके लिए प्रयास करते हैं। हम असफल होते हैं लेकिन लगातार प्रयास करते हैं। प्रकृति लगातार चली जा रही है, हमारी लालसाओं और खुद पर मुग्ध सेल्फी से दूर उसकी रफ्तार कायम है।
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हम भौतिक चीजों में शांति तलाशते हैं और इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि शांति एक मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया है कोई वस्तुगत तथ्य नहीं बल्कि वह तो मानव मन की आकांक्षा है। निराशा से शांति का जन्म नहीं हो सकता है। वह तो मनुष्य की असमर्थता का उत्सव है।