महर्षि वाल्मीकि को पहले रत्नाकर नाम से जाना जाता था। माना जाता है कि इनका जन्म पवित्र ब्राह्मण कुल में हुआ था, किन्तु डाकुओं के संसर्ग में रहने के कारण वाल्मीकि जी लूट-पाट और हत्याएं करने लगे और यही इनकी आजीविका का साधन बन गया। इन्हें जो भी मार्ग में मिल जाता, ये उसकी सम्पत्ति लूट लिया करते थे।
एक दिन वाल्मीकि जी की भेंट देवर्षि नारद से हुई। इन्होंने नारद जी से कहा कि 'तुम्हारे पास जो कुछ है, उसे निकालकर रख दो! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।' देवर्षि नारद ने कहा- 'मेरे पास इस वीणा और वस्त्र के अतिरिक्त है ही क्या?
तुम लेना चाहो तो इन्हें ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो? देवर्षि की कोमल वाणी सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। इन्होंने कहा- भगवान्! मेरी आजीविका का यही साधन है। इसके द्वारा मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूं।'
देवर्षि बोले- 'तुम जाकर पहले अपने परिवार वालों से पूछकर आओ कि वे तुम्हारे द्वारा केवल भरण-पोषण के अधिकारी हैं या तुम्हारे पाप-कर्मों में भी हिस्सा बटाएंगे। तुम्हारे लौटने तक हम कहीं नहीं जाएंगे। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मुझे इस पेड़ से बांध दो।'
देवर्षि को पेड़ से बांधकर वाल्मीकि अपने घर गए। इन्होंने बारी-बारी से अपने कुटुम्बियों से पूछा कि 'तुम लोग मेरे पापों में भी हिस्सा लोगे या मुझ से केवल भरण-पोषण ही चाहते हो।' सभी ने एक स्वर में कहा कि 'हमारा भरण-पोषण तुम्हारा कर्तव्य है।
तुम कैसे धन लाते हो, यह तुम्हारे सोचने का विषय है। हम तुम्हारे पापों के हिस्सेदार नहीं बनेंगे।' अपने कुटुम्बियों की बात सुनकर वाल्मीकि के हृदय में आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। उन्होंने जल्दी से जंगल में जाकर देवर्षि के बन्धन खोले और विलाप करते हुए उनके चरणों में गिर गए।
नारद जी ने उन्हें धैर्य बंधाया और राम-नाम के जप का उपदेश दिया, किन्तु पूर्वकृत भयंकर पापों के कारण उनसे राम-नाम का उच्चारण नहीं हो पाया। तब नारद जी ने सोच-समझकर उनसे मरा-मरा जप करने को कहा, वाल्मीकि जी मरा-मरा भूलकर राम-राम जपने लगे।
भगवान का निरन्तर जप करते-करते वाल्मीकि ऋषि हो गए। उनके पहले की क्रूरता प्राणिमात्र के प्रति दया में बदल गई। एक दिन उनके सामने एक शिकारी ने क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार दिया, तब दयालु ऋषि के मुख से शिकारी को शाप देते हुए एक श्लोक निकला।
वह संस्कृत भाषा में लौकिक छन्दों में प्रथम अनुष्टुप छन्द का श्लोक था। उसी छन्द के कारण वाल्मीकि आदिकवि हुए। इन्होंने ही रामायण रूपी आदिकाव्य की रचना की।
वनवास के समय भगवान श्री राम ने स्वयं इन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया। सीता जी ने अपने वनवास का अन्तिम काल इनके आश्रम पर व्यतीत किया। वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ। वाल्मीकि जी ने उन्हें रामायण का गान सिखाया। इस प्रकार नाम-जप और सत्संग के प्रभाव से वाल्मीकि डाकू से ब्रह्मर्षि हो गए।