- देवदत्त पटनायक
यह श्रुति है कि लक्ष्मी और सरस्वती कभी एक जगह नहीं रहती। इस श्रुति को इससे भी बल मिलता रहा कि अधिकतर अमीर बिजनेसमैन कम पढ़े-लिखे रहे हैं (बिल गेट्स और स्टीव जॉब्स को ही देख लीजिए, दोनों ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी) और जो प्रकांड पंडित रहे उनके दिन गरीबी में बीते।
यह मान्यता इसलिए भी रही क्योंकि सरस्वती शिक्षा, ज्ञान और कौशल की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती रही हैं, हालांकि सरस्वती को देखने की यह दृष्टि एकांगी है।
सरस्वती सिर्फ विद्या और ज्ञान की देवी ही नहीं बल्कि वह कल्पना की आराध्य हैं, और यह मनुष्य की कल्पना ही है जो भविष्य की समस्याओं को सुलझाने की दृष्टि देती है और उसी से नए विचारों पर काम करने की प्रेरणा बनती है। मनुष्य अपने से पहले की पीढ़ी से जो सीखता है उसे अपनी कल्पना से आगे ले जाता है।
हमारी जीन संरचना तो वही है जो 100 वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों की रही होगी, लेकिन कल्पना से हमने अपने जीवन को बहुत उन्नत बनाया है। हमारे विकास में कल्पना की अहम् भूमिका रही है। संपत्ति के बारे में विचारें तो पाएंगे कि सरस्वती की कृपा के बिना या उसकी साधना के बिना धनार्जन कठिन है।
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पैतृक संपत्ति और लॉटरी में ही बिना सरस्वती की कृपा के लक्ष्मी मिल सकती है। कोई धनवान पिता मरने पर अपने पुत्र के लिए अकूत धन-संपत्ति छोड़ जाता है। यह भाग्य है। केवल भाग्य।
कोई केसिनो में धन जीतता है, यह भी भाग्य ही है। इसे हम किस्मत या पूर्व जन्म के कर्मों का फल मान सकते हैं! लेकिन बाकी सभी जगह अगर लक्ष्मी अर्जित करना है तो सरस्वती की कृपा जरूरी है। सरस्वती का आशय सभी तरह के ज्ञान, कौशल और प्रशिक्षण से है।
जितना बेहतर ज्ञान किसी के पास है, उतना ही धन अर्जित करने की संभावना बढ़ जाती है। किसान अन्न् उगाता है क्योंकि वह अन्न् उगाना जानता है। एक शिल्पी तरह-तरह की वस्तुएं बनाता है क्योंकि उसके हाथ में कौशल है। सरस्वती के बिना धन अर्जित करना ही नहीं बल्कि उसे बनाकर रखना भी कठिन है।
जब तक किसान और शिल्पकार के पास व्यापारिक कुशलता नहीं है तो वे अर्जित संपत्ति खो सकते हैं। उनके पास लोगों के साथ संवाद की योग्यता होना चाहिए। इस अर्थ में देखा जाए तो एक व्यापारी को, बैंकर को, गृहिणी को, सभी को सरस्वती की कृपा चाहिए।
अक्सर हम सरस्वती का अर्थ उस ज्ञान से ही लगाते हैं जो हमें स्कूल में मिलता है, लेकिन जब तक ब्रिटिश भारत नहीं आए थे, भारत में आधुनिक स्कूल नहीं थे।
हमारे पास आश्रम थे और ज्ञान परंपरागत रूप से पीढ़ियों में हस्तांतरित होता था। कुम्हार स्वयं अपने बेटे को मिट्टी के बर्तन बनाना सिखाता था, मां अपनी बेटियों को खाना बनाना सिखाती थी।
जितना मनोयोग से सीखते थे उतना जीवन सुंदर बनता था। इसलिए सरस्वती के कई रूप हैं- वह ज्ञान जो हमें स्कूल और अभ्यास से मिलता है वह समाज में सबसे प्रमुखता से सरस्वती का प्रतीक है।
लेकिन इस संकुचित अर्थ से आगे जाकर विचारें तो सरस्वती का सबसे महत्वपूर्ण रूप है विवेक। विवेक कोई भी किसी को उत्तराधिकार में नहीं दे सकता है, वह तो स्वयं अर्जित करना पड़ता है।
कठिन परिश्रम और तपस्या से विवेक प्राप्त होता है। हमारे जीवन में विवेक का अभाव तब दिखाई देता है जबकि हम लक्ष्मी के आने पर सरस्वती की उपेक्षा करने लगते हैं। हम मानने लगते हैं कि हमारे पास जादू से धन आ गया है और यह बस हमारे पास ही बना रहेगा।
लेकिन वह जिसके पास सरस्वती है वह जानता है कि यह सौभाग्य आज है तो सदैव नहीं रहने वाला है और हमें भविष्य की आशंकाओं से निपटने की तैयारी रखना चाहिए। एक प्रसिद्ध सॉफ्टवेयर कंपनी के उदाहरण से इसे समझिए। इस कंपनी ने शिखर के दिनों में धन इकट्ठा करने में ही ध्यान लगाया मूल शब्द तो आसक्ति है, राग है।
ऐसा नहीं है कि उजास का उत्सव केवल आसक्तों का ही हो। उजास का सार्थक उत्सव तो संन्यासी मनाता है एकान्त में। उजास की व्यंजना में सच्चा सन्यासी जाता है। वह स्वयं आलोकित हो उठता है और फिर पूरे संसार को जगमगा देता है। वह आराधना करता है, लक्ष्मी के मातृ स्वरूप की, उनके उस शक्ति रूप की जिसे लक्ष्मीतंत्र में महाविष्णु की अहंता शक्ति कहा गया है।
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हम आसक्ति और राग की व्यंजना में जाएं तो इतिहास के द्वारा से उस संन्यासी शंकर को घर लौटते हुए देखेंगे, जो अपनी मां को दिया गया यह वचन निभाने लौट आया था कि उनके अंतिम समय का वह साक्षी होगा और वही सौंपेगा उन्हें पंचतत्व में।
हम देखेंगे बुद्ध को अंजता की मनोरम भित्तियों पर वे अपने महल में खड़े हैं अपनी पत्नी यशोधरा और अपने पुत्र राहुल के सामने संन्यासी के वेष में और यशोधरा अपने पुत्र का दान अपने पति को दे रही हैं ताकि वह भिक्षु बन सकें।
इतिहास के झरोखे से दिखाई देंगे कृष्ण जिन्होंने राधा से ऐसा राग जोड़ा जहां सरस्वती है, वहीं होगी लक्ष्मी कृपा और अपने यहां प्रतिभाओं की योग्यता बढ़ाने की तरफ ध्यान नहीं दिया और जैसे ही बाजार की स्थितियां बदलीं तो उस कंपनी में लीडरशिप का अभाव हो गया। स्पष्ट है कि सरस्वती के बिना लक्ष्मी को अपने पास स्थिर रख पाना कठिन है।
जब भाग्य उत्पन्न होता है तो हम परंपरा से मिले ज्ञान पर विश्वास नहीं करते और सिर्फ उसी ज्ञान के आधार पर चलते हैं जो हमें आधुनिक स्कूलों और कॉलेजों में मिला है। व्यापार से जुड़े बहुत सारे मध्यमवर्गीय परिवारों के साथ यह हो रहा है कि वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए अमेरिका और योरप भेजते हैं और वहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बहुधा वापस नहीं लौटते हैं और लौटते भी हैं तो परंपरागत चीजों से निराश ही रहते हैं।
वे पीढ़ियों से चले आ रहे व्यापार में रुचि नहीं दिखाते और इंटरनेट की दुनिया को ज्यादा सुरक्षित मानते हैं। एक लोक श्रुति है कि अच्छे समय में लक्ष्मी हमारी ओर आती है और सरस्वती हमसे दूर जाती है, लेकिन बुरे वक्त में सरस्वती हमारी ओर आती है और लक्ष्मी हमसे रूठ जाती है।
दोनों ही तरह के समय में हमें सरस्वती की तरफ ध्यान देना चाहिए। अच्छे समय में सरस्वती हमें सिखाती है कि हम विस्तार को कैसे बनाए रख सकते हैं। बुरे समय में सरस्वती की कृपा से ही हम बुरे भाग्य को अच्छे भाग्य में बदलने की राह पा सकते हैं। लक्ष्मी हो या न हो लेकिन हमें सरस्वती की कृपा की आवश्यकता हमेशा रहेगी। लक्ष्मी को प्रसन्न करना हो तो सरस्वती की आराधना और तपस्या ही श्रेष्ठ मार्ग है।