धर्म डेस्क, इंदौर: छत्तीसगढ़ के रायपुर में एक ऐसा अनोखा मंदिर है जो, साल में सिर्फ एक दिन खुलता है। इसे लेकर शहर और आस-पास के लोगों में कई मान्यताएं प्रचलित हैं। ऐसा माना जाता है कि नागा साधु 700 वर्ष पहले श्मशानघाट में कंकालों के बीच रहकर देवी की पूजा करते थे, इसलिए देवी का नाम मां कंकाली पड़ गया। यह शहर का दूसरा ऐतिहासिक देवी मंदिर है, मां कंकाली की प्रतिमा के बारे में अनुमान लगाया जाता है कि इसका निर्माण 14वीं शताब्दी में किया गया था।
वर्तमान के ब्राह्मणपारा इलाके में जिस जगह पर माता की प्रतिमा है, वह इलाका पहले घनघोर जंगल और श्मशान हुआ करता था। जहां नागा साधुओं ने प्रतिमा की स्थापना की थी, उसे कंकाली मठ कहा जाता है।इस मठ की प्रतिमा को लगभग 400 वर्ष पहले तालाब के ऊपर बने टीले पर मंदिर बनवाकर स्थानांतरित किया गया था। पुराने मठ में आज भी नागा साधुओं के प्राचीन शस्त्र रखे हुए हैं। यह मठ वर्ष में एक बार केवल दशहरा के दिन खोला जाता है।
कंकाली मठ के पुजारी अाशीष शर्मा बताते हैं कि वर्तमान में कंकाली मंदिर में जो प्रतिमा है, वह पहले पुराने मठ में विराजित थी। नागा साधु श्मशान के बीच तांत्रिक पूजा करते थे। दक्षिण भारत से आकर नागा साधुओं ने डेरा डाला था। नागा साधुओं ने ही मठ की स्थापना की थी। श्मशान में दाह संस्कार के पश्चात कंकालों को तालाब में विसर्जित किया जाता था। कालांतर में इसका नाम कंकाली तालाब और कंकाली मठ पड़ गया।
मठ में निवास करने वाले किसी नागा साधु की मृत्यु होने पर मठ में समाधि बना दी जाती थी। पुराने मठ में आज भी समाधियां बनीं हुई है।
13वीं शताब्दी में मठ की स्थापना की गई थी। 17वीं शताब्दी तक मठ में सैकड़ों नागा साधु रहते थे। इसके बाद मठ के पहले महंत कृपालु गिरी बने। बाद के महंतों में भभूता गिरी, शंकर गिरी महंत बने। तीनों निहंग संन्यासी थे। महंत शंकर गिरी ने निहंग प्रथा को समाप्त कर शिष्य सोमार गिरी का विवाह करवाया। उनकी संतान नहीं हुई तो शिष्य शंभू गिरी को महंत बनाया। शंभू गिरी के प्रपौत्र रामेश्वर गिरी के वंशज महंत हरभूषण गिरी वर्तमान में कंकाली मठ के महंत एवं सर्वराकार हैं।
कंकाली मठ में एक हजार साल से अधिक पुराने शस्त्रों में तलवार, फरसा, भाला, ढाल, चाकू, तीर-कमान जैसे शस्त्र रखे हुए हैं। इनकी साफ-सफाई दशहरे के दिन की जाती है।
मठ से स्थानांतरित की गई प्रतिमा जिस मंदिर में विराजित की गई है, इस मंदिर के नीचे जो तालाब है, उस तालाब के पानी को चमत्कारी मानकर चर्म रोगों से पीड़ित लोग तालाब में स्नान करते हैं। इस तालाब में नवरात्र के दिनों में घर-घर में बोए जाने वाले जंवारा अर्थात साबुत गेहूं को रोपने से उगे घास, दूब का विसर्जन किया जाता है।
यह जंवारा औषधि के रूप में तालाब में घुलमिलकर जल को औषधियुक्त जल बनाने में सहयोग करता है। यह भी कहा जाता है कि इस तालाब में गंधक तत्व की मात्रा अधिक है, जो औषधि का काम करती है, जिसके चलते तालाब में स्नान करने से चर्मरोग की छोटी बीमारियों में राहत मिलती है।
कंकाली तालाब के बीचोबीच एक शिव मंदिर है, जिसका केवल शिखर कलश ही दिखाई देता है। पूरा मंदिर लगभग 25 फीट तक पानी में डूबा हुआ है। वर्ष 2014 में जब तालाब की सफाई की गई थी, तब ब्राह्मणपारा निवासियों ने पूरे मंदिर का दर्शन किया था।
कंकाली तालाब में चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र की नवमीं तिथि पर जोत जंवारा का विसर्जन किया जाता है। इस तालाब के आसपास पांच किलोमीटर दूर तक बसे मोहल्ले के लोग सिर पर जंवारा थामकर तालाब के किनारे पहुंचते हैं। जंवारा यात्रा में तालाब के किनारे श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है।