जैन समुदाय वर्तमान समय में श्री सम्मेद शिखर जी तीर्थ स्थल को लेकर चर्चा का केन्द्र बना हुआ है। इस पवित्र तीर्थ स्थल के लिए जैन मुनि समर्थ सागर और जैन मुनि सुज्ञेय सागर जी महाराज ने अनशन पर अपने प्राण त्याग दिए। दोनों संतों का विधि-विधान द्वारा देह संस्कार हुआ। उन्हें डोली में बैठाकर अंतिम यात्रा पर ले जाया गया। इस दौरान जैन समुदाय के लोगों ने बोलियां भी लगाईं। आइये आज हम जानते हैं जैन समुदाय में होने वाली अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया है।
संथारा या सल्लेखना से आश्रय उस पवित्र प्रथा से है जिसमें जैन मुनियों को इस बात का आभास हो जाता है कि उनकी मृत्यु नजदीक है। ऐसी स्थिति में जैन मुनि अपनी इच्छा से भोजन और पानी का त्याग कर देते हैं। इसे अपनी इच्छा से मृत्यु का वरण करना माना जाता है। यह जीवन की अंतिम साधना भी होती है।
जैन संतों के पवित्र ग्रंथ तत्वार्थ सूत्र में जैन मुनियों को संथारा या सल्लेखना को अपनाकर देह त्याग देने का आदेश है। इस ग्रंथ के अनुसार मुनि का भोजन एवं पानी किसी दबाव या जबरन बंद नहीं कराया जा सकता। यह मुनि की स्वेच्छा पर निर्भर होता है। संथारा में संत या मुनि या श्रावक अपनी इच्छा से खुद ही चरण दर चरण भोजन-पानी बंद करते हैं। तत्वार्थ के अनुसार ही जैन मुनि को भोजन दिया जाता है। एक समय के बाद वे धीरे-धीरे भोजन दिया जाना बंद कर दिया जाता है। इसके बाद जैन मुनि प्राण त्याग करने तक भोजन ग्रहण नहीं करते हैं।
प्राण त्याग ने वाले मुनियों की अंतिम यात्रा डोली में निकाली जाती है। इस दौरान उन्हें लकड़ी के एक तख्ते पर प्रार्थना के मुद्रा में बैठाकर बांधा जाता है। दरअसल, जैन धर्म ग्रंथों में संतों के लिए मृत्यु को पाना भी साधना का ही हिस्सा कहा गया है। इसलिए उन्हें साधना की अवस्था में यानी पद्म आसन की अवस्था में बैठाकर तख्ते से बांधाकर अंतिम यात्रा पर ले जाया जाता है।
जैन मुनियों की अंतिम यात्रा में समुदाय के लोग दायां कंधा लगाने, बायां कंधा लगाने, गुलाल उछालने, सिक्के उछालने और अग्नि संस्कार समेत कई दूसरी बोलियां भी लगाते हैं। इसमें से कुछ के लिए बोलियां करोड़ों रुपये तक में जाती हैं। जैन समाज के लोग अंतिम संस्कार के हर चरण में बोली लगाकर सामाजिक कामों में अपना अंशदान देते हैं। बोलियों से इकट्ठा होने वाला धन मंदिर निर्माण, गरीबों के कल्याण सहित कई सामाजिक कार्यों में दिया जाता है।
जैन मुनियों का अंतिम यात्रा के बाद जैन मंत्रों का उच्चारण कर पार्थिव देह को मुखाग्नि दी जाती है। इस दौरान तीर्थंकरण और मुक्तात्माओं का स्मरण करते हुए मृतात्मा के आध्यात्मिक उत्थान की कामना भी की जाती है। जैन संतों या मुनियों की अस्थियों के विसर्जन की परंपरा नहीं है। अगर किसी संत की समाधि बनाई जाती है तो उनकी अस्थियों को कलश में रखकर जमीन में गाड़ा दिया जाता है और उसके ऊपर समाधि बना दी जाती है।
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