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धर्म डेस्क: सनातन शास्त्रों में शिवलिंग की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। भक्त शिवलिंग पर जल, दूध और विभिन्न पूजन सामग्रियों से अभिषेक करते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार, शिवलिंग का पूजन करने से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और जीवन के संकट दूर होते हैं। घर में सुख, समृद्धि और शांति बनी रहती है। शिवलिंग को स्वयं महादेव के स्वरूप का प्रतीक माना जाता है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे हुई। इस विषय का विस्तृत वर्णन शिवपुराण में मिलता है।

शिवपुराण के खंड 1 के नवें अध्याय में शिवलिंग की उत्पत्ति से जुड़ी पौराणिक कथा वर्णित है। इस कथा के अनुसार, एक बार भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी के बीच श्रेष्ठता को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। दोनों के बीच यह द्वंद फैलते ही देवता और ऋषि-मुनि चिंतित हो उठे और उन्होंने इस विवाद का समाधान खोजने के लिए दोनों को भगवान शिव के पास जाने का सुझाव दिया। देवताओं के साथ ब्रह्मा और विष्णु महादेव के समक्ष पहुंचे।
महादेव को पहले से ही पता था कि दोनों देवों के बीच श्रेष्ठता का विवाद चल रहा है। उन्होंने देवताओं से कहा कि उनके द्वारा प्रकट की जाने वाली दिव्य ज्योत के अंतिम छोर तक जो पहले पहुंचेगा, वही अधिक शक्तिशाली माना जाएगा। महादेव की इस शर्त को ब्रह्मा और विष्णु ने स्वीकार कर लिया। तुरंत ही शिव के तेजोमय शरीर से एक अत्यंत विशाल और अगाध ज्योत प्रकट हुई, जो पाताल से लेकर नभ तक फैली हुई थी।
भगवान विष्णु उस ज्योत के पाताल छोर की खोज में निकल पड़े और ब्रह्मा जी आकाश की ओर बढ़े। लंबे प्रयास के बाद भी न तो विष्णु को उसका अंत मिला और न ही ब्रह्मा जी अंतिम छोर तक पहुंच सके। विष्णु जी ने अपनी असफलता स्वीकार कर महादेव से क्षमा मांगी, लेकिन ब्रह्मा जी ने झूठ बोलते हुए दावा किया कि वे ज्योत के अंत तक पहुंच गए हैं। उन्होंने कहा कि ज्योत का अंतिम बिंदु पाताल में स्थित है।
ब्रह्मा जी के इस असत्य पर महादेव ने उन्हें ताड़ना दी और स्पष्ट कहा कि वे झूठ बोल रहे हैं। इसके बाद भगवान शिव ने विष्णु जी को श्रेष्ठ घोषित किया। जिस दिव्य ज्योत से यह परीक्षा ली गई थी, उसी ज्योत स्वरूप को बाद में शिवलिंग कहा जाने लगा और तब से उसकी पूजा-अर्चना सनातन धर्म में अनादि काल से होती आ रही है।
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