
मल्टीमीडिया डेस्क। रहस्यदर्शी आचार्य रजनीश अपने जीवन के अंतिम वर्ष में ओशो के नाम से जाने गए थे। 19 जनवरी को उनकी 33 वीं पुण्यतिथि है। उनकी एक पुस्तक का नाम है, "मैं मृत्यु सिखाता हूं"। इसमें उन्होंने स्वेच्छा से मृत्यु को अंगीकार करने और अशरीरी अनुभवों के बाबत बातें कहीं थीं।
कहने की जरूरत नहीं कि वे अपने तईं सचमुच मृत्यु को वरण करने की कला सिखाकर गए थे। 19 जनवरी 1990 को पुणे स्थित कम्यून में शाम 5 बजे उनकी मृत्यु होने का पता चला था। वे कहते थे, जीवन का भी उत्सव मनाओ और मृत्यु का भी उत्सव मनाओ।
उनकी मृत्यु पर संन्यासियों ने इस परिपाटी का निर्वाह किया। अंतिम संस्कार से पहले उन्होंने शव को सभागृह में रखा और तस्वीरें उतारीं। उनकी रोजमर्रा की महंगी पोशाक में ही दाह संस्कार किया गया और उस दौरान संन्यासियों ने उनकी मृत्यु का उत्सव भी मनाया। आइये आपको दिखाते हैं उस दिन की कुछ तस्वीरें।
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पुणे स्थित कम्यून में ओशो ने आखिरी सांस ली। शाम 5 बजे बाद उनका शव बुद्धा ऑडिटोरियम में लाया गया। उनका शव देखकर ओशो के संन्यासी ना विचलित हुए, ना रोये ना ही उदास हुए। उल्टा, उन्होंने अपने गुरु की मृत्यु को स्वीकार किया और उसका उत्सव मनाया।
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उन्होंने जिस उत्सव और आनंद को आचरण में ढालने की शिक्षा अपने संन्यासियों को दी, संन्यासियों ने उसे साकार भी करके दिखाया। उनकी मृत्यु पर कोई ग़मज़दा नज़र नहीं आया। आंसू नहीं गिरे, ना ही शोक मनाया गया।
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दिवंगत होने के बाद जैसा कहीं कोई दुख नहीं देखा गया। ओशो की देशना के अनुसार ही उनके संन्यासियों ने उनकी अंतिम यात्रा उत्साह से निकाली। ओशो को तरह-तरह की राजसी पोशाकों में तस्वीरें उतरवाने का खासा शौक था। वे अपनी विलासितापूर्ण जीवनशैली के चलते हमेशा सुर्खियों में भी रहे।
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संन्यासी मनाते हैं मृत्यु का उत्सव
संन्यासी मृत्यु का उत्सव मनाते हैं दूसरी ओर सड़कों पर जनता हतप्रभ होकर इस दृश्य को विस्मित होकर देखती है। पुणे स्थित कम्यून में किसी संन्यासी की मृत्यु पर तेज संगीत और आनंद के उन्माद के बीच अंतिम यात्रा को निकाला जाता है। आइये देखते हैं ओशो आश्रम में मृत्यु के उत्सव का एक वीडियो।