त्रेतायुग की बात है। राजा जनक के दरबार में आध्यात्मिक वाद-विवाद चल रहा था। इस मौके पर भारतवर्ष से संत-महात्मा जनक नगरी आए हुए थे। हुआ यूं कि जैसे-जैसे वाद-विवाद बढ़ता गया, वैसे-वैसे कई विद्वान तर्क-वितर्क के जरिए अपनी बात कह रहे थे। इस तरह समय बीतता गया।
और आखिर में सिर्फ दो ही लोग वाद-विवाद के लिए बचे हुए थे। और वह थे ऋषि याज्ञवल्क्य और साध्वी मैत्रेयी। इस तरह दोनों के बीच वाद-विवाद शुरु हुआ। यह काफी समय तक चलता रहा। लेकिन स्थिति वहां आ थमी जब याज्ञवल्क्य मैत्रेयी के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके।
याज्ञवल्क्य आध्यात्मिक तेज और तीक्ष्ण बुद्धि के धनी थे लेकिन एक स्त्री मैत्रेयी से पराजित हो गए। जिसके चलते उन्हें क्रोध आ गया और वह मैत्रेयी से बोले, 'यदि एक भी प्रश्न और पूछा, तो उसके छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए जाएंगे। इस पर जनक बीच में आ गए।'
जनक ने याज्ञवल्क्य से कहा, 'हालांकि आप सब कुछ जानते हैं, फिर भी आपको भीतर इस ज्ञान का जीवंत अनुभव नहीं हुआ है और यही वजह है कि आप मैत्रेयी के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाए।' इसके बाद जनक ने भरे दरबार में मैत्रेयी को सम्मानित किया।
याज्ञवल्क्य को अपनी मर्यादाओं का बोध हुआ। वह मैत्रेयी के चरणों में जा गिरे और आग्रह किया कि मैत्रेयी उन्हें अपना शिष्य बना लें। मैत्रेयी ने उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार किया।
उन्होंने कहा, 'आप मेरे पति बन सकते हैं, शिष्य नहीं।' दरअसल, मैत्रेयी यह देख चुकी थीं कि कोई और आदमी इतना ऊंचा नहीं पहुंच पाया था।
याज्ञवल्क्य ने अभी भी वह नहीं पाया था, जो मैत्रेयी पा चुकी थीं, लेकिन उस समय मैत्रेयी को इतना पहुंचा हुआ दूसरा कोई और आदमी नहीं दिखा, इसलिए उन्होंने याज्ञवल्क्य को पति रूप में स्वीकार करने का फैसला किया। दोनों ने परिवार बसाया और कई सालों तक साथ रहे।
इस तरह समय बीतता गया। कुछ समय बाद एक दिन याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा, 'इस संसार में मैं बहुत रह चुका। अब मैंने तय किया है कि मेरे पास जो भी है, उसे मैं तुम्हें दे दूंगा और अपने आप को पाने के लिए वन चला जाऊंगा।'
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मैत्रेयी ने कहा, 'आपने यह कैसे सोच लिया कि मैं इन सांसारिक चीजों में रम जाऊंगी? जब आप सच्चे खजाने की खोज में जा रहे हैं, तो भला मैं इन तुच्छ चीजों के साथ क्यों रहूं? क्या मैं कौड़ियों से संतुष्ट हो जाऊंगी?' फिर वे दोनों वन चले गए और सिद्ध प्राणियों की तरह अपना बाकी जीवन व्यतीत किया।
पौराणिक कथा का आशय
वैदिक काल वो समय था जब अध्यात्म के मामले में स्त्रियां पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलती थीं। वह समाज पूरी तरह से व्यवस्थित था। जिस समाज में चीजें अच्छी तरह से व्यवस्थित होंगी, उसमें स्वाभाविक रूप से स्त्री का वर्चस्व रहा होगा।