इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उस्तरे से उतारे जाते हैं। जन्म के पश्चात् प्रथम वर्ष के अंत तथा तीसरे वर्ष की समाप्ति के पूर्व मुंडन संस्कार कराना आमतौर पर प्रचलित है, क्योंकि हिंदू मान्यता के अनुसार एक वर्ष से कम की उम्र में मुंडन संस्कार करने से शिशु की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ता है और अमंगल होने की संभावना रहती है। फिर भी कुल परंपरा के अनुसार पांचवे या सातवें वर्ष में भी इस संस्कार को करने का विधान है।
मान्यता यह है कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भगत मलिन संस्कारों को निकालकर मानवतावादी आदर्शों को प्रतिष्ठापित करने हेतु चूड़ाकर्म संस्कार किया जाता है इसका फल बुद्धि, बल, आयु और तेज की वृद्धि करना है। इसे किसी देव स्थल या तीर्थ स्थान पर इसलिए कराया जाता है, ताकि वहां के दिव्य वातावरण का भी लाभ शिशु को मिले तथा उतारे गए बालों के साथ बच्चे के मन में कुसंस्कारों का शमन हो सके और साथ ही सुसंस्कारों की स्थापना हो सके। आश्वलायन गृह्यसूत्र अनुसार-
तेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय स्वस्तये। - आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/17/12
अर्थात् चूड़ाकर्म से दीर्घ आयु प्राप्त होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की ओर प्रवृत्त होने वाला बनता है।
वेदों में चूड़ाकर्म संस्कार का विस्तार से उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद में लिखा है
नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुरवीयाय ॥
-यजुर्वेद 3/63
अर्थात् हे बालक! मैं तेरी दीर्घायु के लिए, तुझे अन्न-ग्रहण करने में समर्थ बनाने के लिए, उत्पादन शक्ति प्राप्ति के लिए, ऐश्वर्य वृद्धि के लिए, सुंदर संतान के लिए एवं बल तथा पराक्रम प्राप्ति के योग्य होने के लिए तेरा चूड़ाकर्म (मुंडन) संस्कार करता हूं। उल्लेखनीय है कि चूड़ाकर्म वस्तुतः मस्तिष्क की पूजा अभिवंदना है। मस्तिष्क का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करना ही बुद्धिमत्ता है। शुभ विचारों को धारण करने वाला व्यक्ति परोपकार या पुण्य लाभ पाता है और अशुभ विचारों को मन में भरे रहने वाला व्यक्ति पापी बनकर ईश्वरीय दंड और कोप का भागी बनता है। यहां तक कि अपनी जीवन प्रक्रिया को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। अतः मस्तिष्क का सार्थक सदुपयोग ही चूड़ाकर्म का वास्तविक उद्देश्य है।
(ज्योतिषाचार्य पंडित सौरभ त्रिपाठी)