बचपन से हम लोग अपने घरों में देखते आ रहे हैं कि भगवान की पूजा की बाद आरती की जाती है। ज्यादातर लोग आरती को पूजा की ही एक प्रक्रिया समझते हैं। लेकिन आरती का अपना एक बड़ा महत्व होता है। आरती उपासना की एक विधि होती है। दीए में एक जलती लौ, कूपर को लेकर भगवान शीश से लेकर चरण तर आरती उतारी जाती है। आइये जानते हैं कि आरती से जुड़ी कुछ खास बातें...
आरती के संदर्भ में विष्णुधर्मोत्तर पुराण क्या कहता है
यथैवोध्र्वगतिर्नित्यं राजन: दीपशिखाशुभा। दीपदातुस्तथैवोध्र्वगतिर्भवति शोभना। अर्थात् जिस प्रकार दीप-ज्योति नित्य ऊध्र्व गति से प्रकाशमान रहती है, उसी प्रकार दीपदान यानी आरती ग्रहण करने वाले साधक आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च स्तर पर पहुंचते हैं।
इस संदर्भ में एक अन्य श्लोक क्या कहता है
नीरांजन बर्लिविष्णोर्यस्य गात्राणि संस्पृशेत्। यज्ञलक्षसहस्त्राणां लभते सनातन फलम्।।
भावार्थ- परमात्मा के नीरांजन की ज्योति का स्पर्श जिनकी विविध इंदियों को होता है, उन्हें हजारों यज्ञ करने से उत्पन्न अक्षय पुण्य फलों की प्राप्ति होती है। इसलिए आरती ग्रहण करने की विधि ज्ञात होना आवश्यक है। देवता की महआरती तथा घृत नीरांजन की आरती उतारने के बाद घृत की आरती ग्रहण की जा सकती है।
आरती को तमिल भाषा में इसे दीप आराधनई कहते हैं। मंदिर एवं घर में देव पूजा होने के बाद तीर्थ और प्रसाद के समान आरती ग्रहण करने का भी महत्व है। आरती करने का पहला रूप आराध्य के सामाने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी,तेल, के दीये की या कर्पूर की हो सकती है, इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। कई बार इसके साथ संगीत (भजन) तथा नृत्य भी होता है। मंदिरों में इसे प्रातः, सांय एवं रात्रि (शयन) में द्वार के बंद होने से पहले किया जाता है। प्राचीन काल में यह विशेष और व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता था। उन्हें हजारों यज्ञ करने से उत्पन्न अक्षय पुण्य फलों की प्राप्ति होती है। इसलिए आरती ग्रहण करने की विधि ज्ञात होना आवश्यक है।
आरती के लिए ये बातें याद रखना आवश्यक है
देवता की महआरती तथा घृत नीरांजन की आरती उतारने के बाद घृत की आरती ग्रहण की जा सकती है। एक बार आरती ग्रहण कर लेने के बाद वही आरती अन्य देवताओं पर नहीं उतारी जाती। महाआरती उतारने के बाद नीरांजन की ज्योति पर दोनों हथेलियां किंचित समय रखकर विविध अवयवों को स्पर्श करना आरती ग्रहण की उपयुक्त विधि है। आरती ग्रहण के समय हथेली का स्पर्श मस्तक, आंख, नाक, कान, मुख, छाती, पेट, घुटने तथा पैर पर करना आवश्यक है। विशेष रूप से जहां जख्म, व्याधि या सूजन हो, ऎसे शरीरांगों पर आरती ग्रहण के समय हथेली का स्पर्श आरोग्यप्रद होता है। भगवान की आरती ग्रहण करते समय लहरें अधिक परिणामकारक बनती है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने से किन्तु इसमें सम्मिलित होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें तीन बार पुष्प अर्पित करने चाहियें। इस बीच ढोल, नगाडे, घड़ियाल आदि भी बजाये जाते हैं।
आरती की विधि :-
आरती करते हुए भक्त के मन में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है। आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धार्मिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या जैसे 3,5 या 7 में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं।
आरती पांच प्रकार से की जाती है
पहली- दीपमाला द्वारा
दूसरी- जल से भरे शंख द्वारा
तीसरी- धुले हुए वस्त्र द्वारा
चौथी- आम और पीपल आदि के पत्तों द्वारा
पांचवीं- साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) द्वारा
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