धर्म डेस्क। महाभारत के युद्ध में कर्ण न सिर्फ एक वीर योद्धा थे बल्कि उन्हें महादानी और श्रेष्ठ धनुर्धर की उपाधि भी मिली थी। उनकी वीरता का लोहा देवता भी मानते थे। उनके पास इंद्र देव से प्राप्त एक ऐसा बाण था, जो अचूक और एक बार चलने पर किसी को भी नष्ट कर सकता था।
यह बाण उन्होंने खास तौर पर अर्जुन के लिए सुरक्षित रखा था। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण की बुद्धिमत्ता के आगे कर्ण की यह योजना विफल हो गई।
कथा के अनुसार, एक दिन देवराज इंद्र ब्राह्मण के वेश में कर्ण के पास पहुंचे और उससे उसका जन्मजात कवच और कुंडल मांग लिया। दानवीर कर्ण ने बिना सोचे-समझे अपनी रक्षा कवच-कुंडल दान कर दिए।
इसके बदले में इंद्र ने उसे वासवी शक्ति नामक एक दिव्य बाण दिया। यह बाण इतना शक्तिशाली था कि इससे छूटने वाला निशाना कभी खाली नहीं जाता था। हालांकि, इंद्र ने शर्त रखी थी कि इस बाण का उपयोग सिर्फ एक बार ही किया जा सकता है।
कुरुक्षेत्र युद्ध के दौरान एक समय ऐसा आया जब कर्ण की शक्ति के सामने अर्जुन भी कमजोर पड़ने लगे थे। उस समय कर्ण ने ठान लिया था कि अब वह वासवी शक्ति बाण का उपयोग अर्जुन को समाप्त करने के लिए करेगा। यह जानकर भगवान श्रीकृष्ण चिंतित हो गए क्योंकि वे जानते थे कि उस बाण से अर्जुन को बचाना असंभव है।
अर्जुन की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने एक चाल चली। उन्होंने भीम और हिडिंबा के पुत्र घटोत्कच को युद्धभूमि में उतारा। घटोत्कच अपनी मायावी शक्तियों से कौरव सेना में हाहाकार मचा देता है। कोई भी योद्धा उसे रोक नहीं पाता।
जब पूरी कौरव सेना संकट में आ गई, तब दुर्योधन और दु:शासन ने कर्ण से विनती की कि वह घटोत्कच को मारने के लिए अपनी वासवी शक्ति का प्रयोग करे।
कर्ण जानता था कि यह बाण एक बार चलाने के बाद वापिस नहीं मिलेगा, फिर भी उसने धर्म की रक्षा के लिए घटोत्कच पर इसे चला दिया। बाण लगते ही घटोत्कच मारा गया, लेकिन मरते-मरते उसने अपना शरीर इतना विशाल कर लिया कि उसकी मृत्यु के साथ ही कौरवों की सेना भी भारी नुकसान झेल गई।
इस तरह श्रीकृष्ण की बुद्धिमत्ता के कारण कर्ण का अमोघ बाण अर्जुन पर नहीं चल पाया और पांडवों की जीत का मार्ग प्रशस्त हो गया।