डॉ. निखिलेश शास्त्री
जन्माष्टमी भारतीय मानस में रचे-बसे योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के तौर पर मनाया जाता है। कृष्ण हमारी परंपरा के ऐसे प्रतीक हैं, जो संपूर्ण जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं। वे पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक से परे पूर्ण पुरुष की अवधारणा को साकार करते हैं। कृष्ण भारतीय मानस के नायक हैं। कृष्ण का चरित्र रससिक्त है, दार्शनिक होने के साथ-साथ व्यावहारिक भी हैं... संक्षेप में कृष्ण जीवन का प्रतिबिंब हैं। इसलिए वे नैतिक-अनैतिक, सत-असत से ऊपर हैं।
कृष्ण का जीवन एक साधारण व्यक्ति के जीवन का असाधारण चित्र है। इसमें संघर्ष है, रस है, प्रेम, विरह, कलह, युद्ध, ज्ञान, भक्ति सब कुछ समाहित है। इस दृष्टि से कृष्ण का किसी भी संस्कृति में होना उस संस्कृति को समृद्ध ही करता है।
श्रीकृष्ण का जीवन
श्रीकृष्ण का जीवन मुख्य रूप से चार नगरों के व्यतीत हुआ है। मथुरा में उनका जन्म हुआ, उज्जयिनी में शिक्षा और बाद में उनकी आठ रानियों में से एक रानी मित्रवृंदा अवंती के राजा वृंद की बहन थी, इसलिए श्रीकृष्ण का ससुराल भी उज्जयिनी रहा है। हस्तिनापुर और आसपास का क्षेत्र उनका कर्मक्षेत्र रहा और अंत में द्वारिका में छत्तीस वर्षों तक राज्य कर परमधाम को प्राप्त हुए।
इस तरह से यदि श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व का विश्लेषण करें तो वे मानव, नेतृत्वकर्ता, गृहस्थ, योद्धा, सारथी, योगिराज और देवता के रूप में भक्तों के मानस पर अंकित हैं। यह तथ्य उनके पूरे जीवन काल को परखने से स्वत: ही सिद्ध हो जाता है।
श्रीकृष्ण होने का अर्थ
श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर महाप्रयाण तक की गाथा यही है कि कारावास में जन्म होता है। जन्म होते ही उनकी हत्या की योजना, किसी तरह बचकर माता-पिता से दूर एक ऐसे परिवार में पालन-पोषण जहां कोई नाता-रिश्ता नहीं, बचपन में गैया चराते हुए बाल-ग्वालों के रूप में दही-मक्खन चुराना, पूतना, कालिया नाग के प्राण लेना। गोवर्धन उठाकर बृजवासियों के प्राणों की रक्षा करना और पिर कंस-जरासंध-शिशुपाल जैसे आततायियों का समूल नाश करना, लताकुंज में राधा-गोपियों के साथ माधुर्य लीला करना, दुर्योधन से पांडवों के लिए संधि का प्रयास करना, महाभारत के युद्ध में सारथी बनना, युद्ध में पांडवों को विजय दिलवाना और उन्हें राज्यारोहित कर द्वारिका में अपनी पटरानियों के साथ गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए परमधाम को प्राप्त हो जाना।
इस तरह से देखा जाए को उनका पूरा जीवन उतार-चढ़ाव, संघर्ष-झंझावात से परिपूर्ण रहा, ये तीनों लोगों के सत्ताधारी होने पर भी असत के साम्राज्य में विचरण करते रहे। अलौकिक जीवन वृत्त होने पर भी उनके लौकिक जीवन वृत्तांत पौराणिक ग्रंथों में भव्यता और उदात्तता से चित्रित हुआ।
शांति-दूत श्रीकृष्ण
महाभारत के युद्ध से पहले उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा से प्रयास किया कि युद्ध न हों। वे युद्ध की विभीषिका, उसके परिणामों से पूरी तरह से परिचित थे, इसलिए वे कौरव-पांडवों के बीच संधि करवाने का प्रयास करते रहे।
कर्मवीर श्रीकृष्ण
अंतत: जब शांति स्थापना के सारे प्रयास असफल हो गए तब इन्हीं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने और अपने कर्मों का निर्वहन करनेे के लिए गीता का उपदेश दिया। यहां श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में एक प्रकार से 'नॉन प्लेइंग कैप्टन" हैं जो अत्याचार की सत्ता को उखाड़कर, धर्म की रक्षा के लिए अधर्म से लड़ने वालों के साथ खड़े हैं। झूठ बुलवाते हैं, नियमों को तोड़ते हैं, तुड़वाते हैं और न्यायोचित उद्देश्य के लिए अनुचित साधन अपनाने को लेकर कोई संकोच नहीं करते हैं। आधुनिक कानून की भाषा में इसे 'नोबल ऐंड जस्टीफाइड इग्नोबल मींस" कहा गया है। प्रोफेसर हॉपकिंस ने अपनी पुस्तक 'ग्रेट इपिक ऑफ इंडिया" में श्रीकृष्ण की इस कूटनीति को 'टिट फॉर टैट" (जैसे को तैसा) की नीति कहा है।
मित्रों के मित्र
श्रीकृष्ण पौराणिक ग्रंथों में प्रेम और मित्रता के प्रतीक के तौर पर भी जाने जाते हैं। श्रीकृष्ण-सुदामा तो सर्वविदित है ही, लेकिन द्रोपदी के साथ उनका सख्य हमें अचंभित करता है। राजा द्रुपद द्रोपदी का विवाह श्रीकृष्ण से करना चाहते थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि 'मैं सच्चे मित्र की तरह उसकी सुरक्षा करूंगा।" इसलिए द्रोपदी को कृष्णा भी कहा जाता है। उन्होंने इस प्रतिज्ञा का पालन हर समय किया। चीरहरण के समय श्रीकृष्ण ने द्रोपदी का चीर बड़ा किया। एक बार जब पांडव जंगल में अपने दुर्दिन काट रहे थे, तब द्रोपदी के उलाहने पर श्रीकृष्ण ने उसे याद दिलाया था 'चाहे आकाश गिर जाए या हिमालय के टुकड़े हो जाए, समुद्र सूख जाए परंतु द्रोपदी मेरा यह वचन व्यर्थ नहीं होगा कि तुम उसी राज्य की साम्राज्ञी के तौर पर फिर से प्रतिष्ठित होओगी।"
जन्माष्टमी और कृष्ण जयंती
अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में तो इस व्रत को करें। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो वह 'जयंती" कही जाएगी। कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अत: उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नामवाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए।
श्रीकृष्ण के जीवन के चरित्र-चित्रण से स्पष्ट है कि वे उस युग के आध्यात्मिक और राजनीतिक दृष्टा रहे। समाज की मंगलकामना के लिए, धर्म-सत्य और न्याय को सिंहासन पर प्रतिष्ठित करने के लिए सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों के समूल विनाश के लिए उन्होंने अवतार लिया था। शायद इसीलिए धर्मग्रंथ यह उद्घोषणा करते हैं कि 'जहां-जहां श्रीकृष्ण हैं, वहां-वहां विजय निश्चित है।"