मनीष करे, खंडवा। जीवनदायिनी मां नर्मदा की स्तुति के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने ओंकारेश्वर में नर्मदाष्टक की रचना की थी। नर्मदा जन्मोत्सव पर मां नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से लेकर गुजरात में खंभात की खाड़ी तक नर्मदा के तटों पर यह गूंज रहा है।
शिवसुता मां नर्मदा के तट और ज्योतिर्लिंग भगवान ओंकारेश्वर-ममलेश्वर की आध्यात्मिक भूमि पर मात्र आठ वर्ष की उम्र में आचार्य शंकर ने अपने गुरु गोविंदपादाचार्य से दीक्षा प्राप्त कर वेदांत और उपनिषदों की रचना की थी।
ओंकारेश्वर में ही उन्होंने मां नर्मदा के रौद्र रूप को शांत करने के लिए ही नर्मदाष्टक रचा था। ओंकारेश्वर की धन्य धर्मभूमि पर आदिगुरु शंकराचार्य की स्मृतियों को अक्षुण्ण और चिरस्थायी रखने की मंशा से प्रदेश सरकार ने उनकी 108 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित कराई। संग्रहालय और अंतरराष्ट्रीय अद्वैत वेदांत संस्थान का निर्माण शंकराचार्य प्रकल्प के अंतर्गत किया जा रहा है। ओंकार पर्वत पर स्टैच्यू ऑफ वननेस एकात्मा की प्रतिमा स्थापना के बाद अन्य कार्य फिलहाल ठप हैं।
सबिंदु सिन्धु सुस्खल तरंग भंग रंजितम, द्विषत्सु पाप जात जात कारि वारि संयुतम। कृतांत दूत काल भूत भीति हारि वर्मदे त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे।
इन पंक्तियों का अर्थ है कि पापनाशिनी मां नर्मदा मैकल पर्वत के अमरकंटक से निकल कर अविरल बहती हुई समुद्र में मिल जाती है। इस बीच भक्तों को उनके पापों से मुक्त कर उनका मन शुद्ध करती हैं। आपके प्रभाव से तो स्वयं काल, यमराज, भूत इत्यादि भी दूर चले जाते हैं। मैं आपका भक्त आपके चरणों का ध्यान कर प्रणाम करता हूं। मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान करें।
आदिगुरु शंकराचार्य के नर्मदाष्टक से मां नर्मदा की स्तुति होती है। बताया जाता है कि ओंकारेश्वर आश्रम में गुरु गोविंदपादाचार्य साधनारत थे। तभी मां नर्मदा के रौद्र स्वरूप की वजह से जनजीवन जल प्लवित होने लगा।
साधना में लीन गुरु तक नर्मदा का पानी पहुंचने से रोकने के लिए शंकराचार्य ने नर्मदाष्टक की रचना कर मां से शांत होने की स्तुति की थी। आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म को पुनः स्थापित और प्रतिष्ठित करने के लिए चारों दिशाओं में मठों की स्थापना के साथ ही बाल्यकाल में ही कम उम्र में वेदांत और उपनिषद की रचना की थी।
ओंकारेश्वर में मां नर्मदा किनारे दीक्षा ग्रहण कर संन्यास की राह चुनी थी। उनके प्रयासों से सनातनी संस्कृति का प्रवाह अविरल हो रहा है।