योगेंद्र शर्मा। मान्यता है कि जब प्रलयकाल में अग्नि, वायु, सूर्य, सागर, पर्वत, नदी आदि नहीं थे तब सिर्फ देवादिदेव महादेव ही ब्रह्मांड के अधिपति थे और तब से अब तक उनके तेज से आकाशमंडल जगमगाता है। पापों को हरने वाले, विपत्तियों का नाश करने वाले, सुख-संपत्ति, आरोग्य और मोक्ष के प्रदाता श्रीशिव पृथ्वी पर अनेकों जगहों पर विराजमान है। कुछ जगहों पर वह स्वयंभू है अर्थात स्वयं प्रगट हुए हैं तो कहीं पर उनको लिंग रूप में वेदोक्त मंत्रों के साथ विराजमान किया है। दुनियाभर में फैले हुए शिव देवालयों में महादेव मूर्ति या लिंग रुप में स्थापित किए गए हैं। ऐसा ही एक प्राचीन, भव्य और इतिहास को अपने में समेटे हुए मंदिर तिलकेश्वर महादेव का है।
तारागढ़ के नाम से प्रसिद्ध था तराना शहर
तिलकेश्वर महादेव का मंदिर मध्य प्रदेश में उज्जैन से 40 किलोमीटर दूर तराना तहसील में स्थित है। सदियों पहले यह स्थान तारागढ़ के नाम से प्रसिद्ध था और कस्बे की आबादी काफी कम थी। आसपास घना जंगल था। इतिहास के आइने में यदि गौर किया जाए तो मुगलिया सल्तनत औऱ निजाम की हुकुमत से होते हुए यह इलाका मराठा शासकों के अधीन आ गया।
तराना में उस वक्त मराठा राजवंश का राजपाठ था। और उस समय होलकर राजशाही की गद्दी पर देवी अहिल्याबाई होलकर विराजमान थी। जनश्रुति के अनुसार एक बार एक राजा से युद्ध के बाद समझौते के लिए अहिल्याबाई तराना नगर से गुजर रही थी। उस वक्त उन्होंने इस स्थान पर उन्होने अपने शाही खेमे को रुकने का आदेश दिया और रात्रि विश्राम किया।
राजमाता अहिल्याबाई ने करवाया था मंदिर का निर्माण
जिस जगह पर महारानी अहिल्याबाई के लाव-लश्कर ने पड़ाव डाला था उस जगह पर उस समय कुछ साधु-संत डेरा डाले हुए थे। वहीं पर उन साधु-संतों ने एक शिवलिंग की स्थापना की थी और वे उसकी आराधना करते थे। उसी वक्त रात्रिविश्राम के दौरान अहिल्याबाई को सपना आया कि वह इस जगह पर युद्धरत राजा के दूत को बुलाए और उससे समझौते के लिए आगे की पहल करें। बतलाया जाता है कि वह राजा जीरापुर के आसपास खीची राजपूतों के किसी ठिकाने से संबंधित थे। राजा के दूत को आमंत्रित किया गया और इस जगह पर शांति समझौते को अंतिम रूप दिया गया।
देवी अहिल्याबाई ने अपनी चतुराई से उस वक्त राज्य पर गहरा रहे युद्ध के बादलों को टाल दिया था इसलिए राजमाता अहिल्याबाई ने इसको देवकृपा माना और पड़ावस्थल पर स्थापित शिव प्रतिमा पर भव्य शिव मंदिर का निर्माण का संकल्प लिया। मंदिर के मुख्य द्वार पर स्थापित शिलालेख के अनुसार मंदिर निर्माण की तिथि विक्रम संवत 1790 और शक संवत 1775 लिखी हुई है। यह भी कहा जाता है कि अहिल्यादेवी ने मंदिर निर्माण अपने पति खंडेराव होलकर की स्मृति में करवाया था। मंदिर का पहले नाम तिलकेश्वर महादेव मंदिर था, जो बाद में तिलभांडेश्वर महादेव में परिवर्तित हो गया।
मंदिर की व्यवस्था में रखे थे 1 महंत और 10 पुजारी
देवी अहिल्या के द्वारा मंदिर की स्थापना करने के बाद उसके रख-रखाव और पूजा-अर्चना की भी पूरी व्यवस्था की। मंदिर की सेवा में एक महंत और 10 पुजारियों की नियुक्ति की। दसों पुजारियों के काम का विभाजन किया गया। जिसके अंतर्गत पहले पुजारी का काम शिवलिंग की पूजा करना, दूसरे पुजारी का काम मंदिर में शिवपुराण का वाचन करना, तीसरे पुजारी का काम शिवलिंग के लिए बिल्वपत्र की व्यवस्था कर उनको शिवपिंडी पर समर्पित करना, चौथे पुजारी का काम भगवान को नैवेद्य चढ़ाना, पांचवें पुजारी का काम मंदिर की साफ- सफाई की व्यवस्था करना, छठे पुजारी का काम सावन-भादौ मास में निकलने वाली सवारी में मंदिर का निशान लेकर चलना, सातवें पुजारी का काम कोतवाल के रूप में सुरक्षा का जिम्मा संभालना, आठवें का काम सभी कामदारों से काम करवाना, नौवें पुजारी का काम भगवान को चंवर झूलाना और दसवें पुजारी का काम सवारी में छड़ी लेकर चलना था।
मराठा वास्तुकला का उम्दा नमूना है तिलकेश्वर महादेव मंदिर
प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान तक मंदिर का स्थापत्य वैसा ही बना हुआ है और उसमें कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। मंदिर काले पत्थरों पर नक्काशी कर बनाया गया है। मुख्य द्वार अत्यंत आकर्षक और मराठा वास्तुकला की उम्दा कारिगरी को दर्शाता है। मुख्य द्वार के आसपास दो हाथी बने हुए हैं। आसपास यक्ष-यक्षिणियां है और मुख्य द्वार के ऊपर प्रथम पूजनीय श्रीगणेश देवी रिद्धि और सिद्धि के साथ विराजमान है। मंदिर के नंदी मंडप में काले पत्थर के नंदी की प्रतिमा विराजमान है, जिसके नीचे कछुआ बना हुआ है जिसको कूर्मपीठ भी कहा जाता है।
मंदिर के गर्भगृह के द्वार पर श्रीगणेश विराजमान है। गर्भगृह में अतिप्राचीन शिवलिंग है, जिसकी जलाधारी को बाद में पीतल से सुसज्जित किया गया है। काले पत्थर का शिवलिंग अनादी काल का बताया जाता है। मंदिर की दिवारों में तीन आले बने हुए हैं, जिसमें श्रीगणेश, माता पार्वती और कार्तिकेय देव विराजमान है। मंदिर की छत अष्टकोणीय आकार में बनी हुई है। और उसके ऊपर शास्त्रोक्त चित्रों को उकेरा गया है।
अहिल्याबाई के न्याय की याद दिलाता है विशेष चिन्ह
मंदिर की बाहरी दीवार पर दो हाथी बने हुए हैं। इनमें से एक हाथी अपने पैर के नीचे एक बच्चे को कुचल रहा है नगर के जानकार और सेवानिवृत्त शिक्षक कन्हैयालाल प्रजापति का कहना है कि देवी अहिल्या ने देशभर में अनेकों मंदिर, मठ और घाटों का निर्माण किया, उन सभी जगहों पर यह निशान बनाया गया है। यह चिन्ह देवी अहिल्या की न्यायप्रियता का प्रतीक है। कहा जाता है कि अपने बेटे के पथभ्रष्ट और अत्याचारी होने पर उन्होंने उसको हाथी के पैरों के नीचे कुचला दिया था। इसलिए हर जगह पर यह हाथी के द्वारा बच्चे को कुचलने का चिन्ह बनाया जाता है, लेकिन इसको लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ जानकारों का कहना है कि उनका बेटा बुरी संगति में पड़ चुका था और देवी अहिल्या उससे परेशान थी, लेकिन वो इतनी दयालु थी कि अपने बेटे को ऐसा दंड नहीं दे सकती थी और उसकी मृत्यु बीमारी की वजह से हुई थी।
अहिल्य़ादेवी की बेटी की शादी यशवंतराव फणसे से हुई थी, जिनको उपहार स्वरूप तराना सहित 16 जगहों की जागीर दी गई थी और वो अपने पति की मृत्यु पर सती हो गई थी। इनके वंशज वर्तमान में इंदौर में निवासरत है।
दशनाम जूना अखाड़ा से जुड़ा है यह मंदिर
वर्तमान में तिलभांडेश्वर महादेव मंदिर का जिम्मा जूना अखाड़े के श्रीमहंत प्रकाशानंद भारती संभालते है। मंदिर साधु समाज के तेरह अखाड़ों में प्रमुख स्थान रखने वाले जूना अखाड़ा से संबंधित है, इसलिए इस मंदिर की सेवा और संपत्ति की जिम्मेदारी श्रीमहंत के द्वारा की जाती है। इसके अलावा यह मंदिर बिहार मे सिवान के पंचरुखी मठ से जुड़ा हुआ है। इसलिए मंदिर की व्यवस्था और संचालन सीवान से भी जुड़ा हुआ है।
इसके अलावा तिलकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में मराठा काल के देवी-देवताओं के कुछ और मंदिर भी हैं, जो आस्था के देवालय होने के साथ कला के अदभुत नमूने हैं। मंदिर परिसर में महादेव के दो अन्य मंदिर स्थित है, जो मराठाकाल की नायाब धरोहर हैं। इसके साथ ही उसी समय का रामभक्त हनुमान का मंदिर है। बीस साल पहले बनाया गया एक शिव मंदिर भी है, जिसके अंदर काले पत्थर का विशाल शिवलिंग स्थापित है, जो एक ही पत्थर से बनाया गया है।
काले पत्थरों पर कारीगरी की नायाब धरोहर है चोपड़ा
मानव जीवन में जल तत्व की प्रधानता है और बगैर जल के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। वेद-पुराणों में भी जलराशि को देवालयों और देवी-देवताओं से जोड़ा गया है और शुभ तिथियों और उनसे बनने वाले विशेष संयोग में स्नान की महत्ता को बतलाया गया है। कैलाशवासी शिव का जल से विशेष अनुराग रहा है। मात्र एक लोटा जलाभिषेक से वो शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। देवी अहिल्या ने जल के इस शास्त्रोक्त महत्व को समझते हुए नगर में तालाब खुदवाया और तिलभांडेश्वर महादेव मंदिर के पास एक भव्य और विशाल बावड़ी का निर्माण करवाया। इस बावड़ी को तिलकेश्वर महादेव का चोपड़ा कहा जाता है।
प्राचीनकाल में अथाह जलराशि वाले इस चोपड़े से शिव जलाभिषेक और मंदिर के कामकाज की व्यवस्था के साथ श्रद्धालुओं और मुसाफिरों की प्यास बुझाने का इंतजाम किया जाता था। काले पत्थरों से निर्मित यह चोपड़ा यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं को प्रकृति से नजदीकी का अहसास करवाता है। इसके आसपास का क्षेत्र हरियाली की चादर ओढ़े हुए हैं, जो बेहद मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है।
इस चोपड़े में जमीन से अंदर तल तक जाने के लिए सीढ़ीयां बनी हुई है। सीढ़ियां बनाने के लिए काले पत्थरों को काटकर करीने से आकार दिया गया है। बारिश के मौसम में पानी भरा होने की वजह से इसके वास्तु के दीदार नहीं हो पाते हैं, लेकिन गर्मी में पानी के सूखने पर पत्थरों से तराशा गया इसका अक्स निखर कर सामने आता है।
श्रीशिव दिगंबर होते हुए भी भक्तों को एश्वर्य देने वाले हैं। तीनो लोकों के अधिपति होते हुए भी श्मशानवासी है। अर्द्धनारिश्वर होत् हुए भी योगाधिराज है। भस्मधारी होते हुए भी कई रत्नों के स्वामी है। कल्याण के प्रदाता हैं तो प्रलयंकर भी है। ईश्वर के भी ईश्वर महेश्वर हैं। सभी को अभय देने वाले और कल्याण करने वाले हैं।