सनातन धर्म में सभी धार्मिक कार्यों में पूजा से पहले कलश स्थापना जरूर की जाती है। गृह प्रवेश, दिवाली पूजन, यज्ञ-अनुष्ठान, दुर्गा पूजा इसका विशेष महत्व है।
कलश के मुख में भगवान विष्णु का निवास है। कंठ में रुद्र तथा मूल में ब्रह्मा स्थित हैं और कलश के मध्य में दैवीय मातृ शक्तियां निवास करती हैं।
कलश में भरा जल हमेशा शीतल, स्वच्छ एवं निर्मल बना रहने का संकेत देता है। वहीं क्रोध, लोभ, मोह-माया, ईर्ष्या और घृणा जैसी भावनाओं से दूर रहने की सीख देता है।
कलश हमेशा सोने, चांदी, तांबे या मिट्टी का बना होना चाहिए। पूजा के लिए लोहे का कलश उपयोग में नहीं लाना चाहिए और हमेशा उत्तर या उत्तर पूर्व दिशा में रखें।
कलश स्थापना से पहले उस स्थान की अच्छे से साफ-सफाई करना चाहिए और गंगाजल का छिड़काव करना चाहिए। उसके बाद ही कलश स्थापित करना चाहिए।
मिट्टी की वेदी बनाकर हल्दी से अष्टदल बनाएं। कलश में पंच पल्लव, जल, दूर्वा, चंदन, पंचामृत, सुपारी, हल्दी, अक्षत, सिक्का, लौंग, इलायची, पान डालें। फिर स्थापित करें।
कलश को स्थापित करने के बाद रोली से स्वास्तिक बनाएं। कलश पर बनाए जाने वाला स्वास्तिक का चिन्ह चार युगों का प्रतीक होता है।
कलश के नीचे जौ या गेहूं रखें। कलश पर आम के पत्ते रखने के बाद नारियल रखना चाहिए। इसके बाद पंचोपचार से कलश का पूजन करें।