
टी.सूर्याराव, नईदुनिया, भिलाई: रिसाली नगर निगम की राजनीति इन दिनों बड़े ही रोचक मोड़ पर है। यहां की सत्ता समीकरण को देखकर यह सवाल जरूर उठने लगा है कि क्या निगम में दोनों राष्ट्रीय पार्टियां भाजपा और कांग्रेस एकजुट हो गई हैं? विपक्ष और सत्ता पक्ष के नेताओं के बीच जो समन्वय दिखाई दे रहा है, वह राजनीतिक गलियारों में चर्चा का मुख्य विषय बना हुआ है।
रिसाली नगर निगम में कुल 40 वार्ड हैं। लेकिन दो पार्षदों रूआबांधा बस्ती के टीकम साहू और पुरैना के ओमप्रकाश मिरझा के निधन के बाद अब 38 पार्षद ही बचे हैं। इनमें कांग्रेस के 20 और भाजपा के 18 पार्षद हैं। वर्ष 2026 दिसंबर में इन दो वार्डों पर उपचुनाव प्रस्तावित हैं।
कांग्रेस की महापौर शशि सिन्हा, जो पूर्व गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू की करीबी मानी जाती थीं, सत्ता परिवर्तन के बाद सबसे पहले उन्होंने महापौर परिषद में बड़े बदलाव कर दिए। परिषद से अनुप डे, चंद्रभान ठाकुर, गोविंद चतुर्वेदी और सोनिया देवांगन जैसे पार्षदों को बाहर कर दिया गया। ये सभी पूर्व मंत्री साहू के बेहद नजदीकी माने जाते थे। इस निर्णय ने कांग्रेस खेमे में भारी असंतोष पैदा कर दिया।
स्थिति यह है कि कांग्रेस के कई पार्षद अब खुलेआम यह कहते नजर आते हैं कि अगर मौका मिले तो वे अपनी ही पार्टी की महापौर को पद से हटाने में देर नहीं लगाएंगे। अंदर ही अंदर बगावती स्वर मजबूत होते जा रहे हैं और राजनीतिक समीकरण कभी भी पलट सकते हैं।
कांग्रेस में असंतोष के बावजूद, महापौर शशि सिन्हा मजबूती से अपनी कुर्सी पर कायम हैं। वजह है भाजपा के कुछ प्रभावशाली नेताओं का समर्थन। ऐसी चर्चा है कि भाजपा के एक वरिष्ठ निर्वाचित जनप्रतिनिधि के साथ उनकी खास सांठगांठ बनी हुई है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इसी समर्थन की बदौलत विपक्ष होते हुए भी भाजपा पार्षद महापौर के खिलाफ मोर्चा नहीं खोल रहे।
इसी जनप्रतिनिधि के एक रिश्तेदार का रिसाली निगम में ठेकाें में बड़ा दखल बताया जा रहा है। निगम के ठेकों पर एकाधिकार और उसका मनमाफिक वितरण किए जाने की बातें भी चर्चाओं में हैं। बताया जा रहा है कि निगम में होने वाले कार्यों से जुड़े अधिकांश अनुबंध इन्हीं के माध्यम से तय हो रहे हैं। यही कारण है कि कई निर्वाचित प्रतिनिधि भी महापौर शशि सिन्हा को हटाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते क्योंकि सत्ता, स्वार्थ और ठेका तीनों का गणित एक-दूसरे से गहराई से जुड़ा है।
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दूसरी ओर, कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से भी कोई निर्णय नहीं आने के कारण असंतोष और गठजोड़ की राजनीति धीरे-धीरे और गहराती जा रही है। पार्टी का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि निगम में संगठनात्मक नियंत्रण वापस स्थापित हो, जबकि दूसरा वर्ग भाजपा समर्थित व्यवस्था में ही खुद को सुरक्षित समझ रहा है।
राजनीतिकों की मानें तो यहां जो माहौल बना है, वह निगम की कार्यप्रणाली के साथ-साथ लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए भी चुनौती है। सत्ता पक्ष और विपक्ष का इस तरह एक प्लेटफार्म पर आ जाना लोकतंत्र की मूल भावना को कमजोर करता है। जनता ने दोनों दलों को उनकी नीतियों के आधार पर चुना था, लेकिन अब निगम में सौदेबाज़ी और सुविधानुसार गठबंधन का खेल चल रहा है।
अगले वर्ष होने वाले उपचुनाव और उसके बाद महापौर की स्थिरता पर फिर से सवाल उठेंगे। कांग्रेस अपने गढ़ में अपनी साख बचाने के लिए संघर्षरत है, जबकि भाजपा के एक निर्वाचित नेता प्रत्यक्ष रूप से विपक्ष में होते हुए भी परोक्ष रूप से सत्ता का लाभ उठा रही है। रिसाली निगम की यह राजनीति भविष्य में किस मोड़ पर जाएगी यह कहना अभी मुश्किल है, लेकिन इतना तय है कि यहां की सत्ता अब केवल बहुमत के गणित पर नहीं, बल्कि गुप्त गठबंधनों और ठेकेदारी की राजनीति पर टिकी दिखाई दे रही है।