.webp)
विनोद सिंह, नईदुनिया, जगदलपुर। लंबे समय तक माओवादी हिंसा के साए में दबी रही बस्तर की धरती अब नई कहानी लिख रही है। गोलियों की गूंज थमने लगी है और उसकी जगह जंगलों में फिर ‘लाइट, कैमरा, एक्शन’ की आवाजें लौट आई हैं। अबूझमाड़ से दक्षिण बस्तर तक फिल्मकार नए दृश्य तलाश रहे हैं। कहीं ‘दण्डा कोटुम’ की शूटिंग जारी है, तो हाल ही में रिलीज माटी ने खूब चर्चा बटोरी। ‘ढोलकल’, ‘आरजे बस्तर’ और मुंदरा मांझी पर आधारित फिल्में भी कतार में हैं। सुरम्य प्रकृति और आदिवासी संस्कृति बस्तर को फिर फिल्मों का प्रिय ठिकाना बना रही है।
छत्तीसगढ़ी फिल्मकार अमलेश नागेश कहते हैं, ‘मैं ऐसी फिल्म बनाना चाहता हूं, जो केवल मनोरंजन न दे बल्कि अबूझमाड़ की असल पहचान को दुनिया के सामने रखे। इसी वजह से मैंने दण्डा कोटुम की शूटिंग के लिए अबूझमाड़ को चुना।’ इसी का परिणाम है कि कभी माओवादी गतिविधियों का गढ़ माने जाने वाले मसपुर, गारपा और होरादी गांवों में कैमरे घूम रहे हैं, लाइटें जल रही हैं और स्थानीय लोग अभिनय कर रहे हैं। अमलेश की फिल्म यूनिट में करीब 150 सदस्य हैं, जिनमें कई स्थानीय कलाकार और ग्रामीण युवा शामिल हैं। गांव की महिलाएं फिल्म क्रू के लिए भोजन बना रही हैं, बच्चे सेट पर कलाकारों के पीछे-पीछे दौड़ते हैं।
मुंदरा मांझी पर बनी फिल्म तैयार है, जो अगले वर्ष मार्च-अप्रैल में रिलीज हो सकती है। बस्तर के सघन जंगल, सुरम्य घाटियां, कल-कल बहती नदियां, झरते झरने, पर्वतमालाएं और दृश्यावलियां, इन नैसर्गिक खजानों के साथ आदिवासी संस्कृति की अनूठी छटा फिल्मकारों को सदैव आकर्षित करती रही है। 82 वर्षीय सुभाष पांडे ‘कालाजल’ उपन्यास पर आधारित टीवी सीरियल में काम कर चुके हैं। इसे बस्तर के साहित्यकार स्व. गुलेशर अहमद शानी ने लिखा था।
पांडे कहते हैं कि वे दिन भी क्या दिन थे, जब देव आनंद, नाना पाटेकर, भारत भूषण, सुरेश ओबेराय, मोहन भंडारी जैसे दिग्गज कलाकार बस्तर आते थे। अब जब बस्तर माओवादी हिंसा के साए से बाहर निकल रहा है, तो फिल्मों की शूटिंग का पुराना सुनहरा दौर लौटता दिखाई दे रहा है। 1957 में स्वीडिश फिल्म ‘द जंगल सागा’ की शूटिंग अबूझमाड़ में हुई थी, जिसके नायक गढ़बेंगाल का बालक चेंदरू मंडावी था। बाघ से दोस्ती पर आधारित इस फिल्म के बाद चेंदरू बस्तर के ‘मोंगली’ नाम से विश्वविख्यात हुआ था।
नूतन, देवानंद और मिथुन भी आ चुके हैं बस्तर
लगभग चार दशक पहले जब माओवाद का प्रभाव कम था, तब बस्तर में फिल्मों, धारावाहिकों और वृत्तचित्रों की नियमित शूटिंग होती थी। 1980 में रिलीज हुई बिमल दत्त की फिल्म ‘कस्तूरी’ की शूटिंग 1977 में यहीं हुई थी। इसमें नूतन, मिथुन चक्रवर्ती, डॉ. श्रीराम लागू और परीक्षित साहनी जैसे कलाकारों ने काम किया।
फिल्म निर्माता-निर्देशक जीएस मनमोहन बताते हैं कि 10-12 दिन तक कलाकार जंगलों में अस्थायी शिविर में ठहरे थे। उन्होंने बताया कि नूतन ने शूटिंग के दौरान अपना अधिकांश समय बस्तर के घने जंगलों में बिताया और आसपास के क्षेत्रों का भ्रमण भी किया। मनमोहन ने हाल ही में हिंदी फिल्म मुंदरा मांझी की शूटिंग पूरी की, जो अगले वर्ष मार्च-अप्रैल में रिलीज होगी।
माटी में दिखाई बस्तर की खूबसूरती
हाल ही रिलीज माटी फिल्म के निर्माता संपत झा जगदलपुर के हैं और यह उनकी पहली फिल्म है। फिल्म में माओवादी हिंसा, जंगलों का दर्द, प्रेम, शोषण,इन सबको परदे पर उतारा गया है। कहानी काल्पनिक है, लेकिन बस्तर के चार दशकों की वास्तविकता के बेहद करीब है। फिल्म की शूटिंग बस्तर के सुंदर स्थलों और जगरगुंडा जैसे माओवादी प्रभावित इलाकों में हुई, जो क्षेत्र में लौटती शांति के कारण संभव हो पाया।
देवमाली-अरकू से कमतर नहीं बस्तर
पड़ोसी राज्यों ओडिशा और आंध्र प्रदेश के देवमाली व अरकू- अनंतगिरी घाट फिल्मों के बड़े केंद्र बन चुके हैं। वरिष्ठ रंगकर्मी सुभाष पांडे कहते हैं कि बस्तर में इससे कहीं अधिक लोकेशन उपलब्ध हैं और यह किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। यहाँ फिल्मों की शूटिंग बढ़ने से स्थानीय रोजगार और पर्यटन उद्योग को भी बढ़ावा मिलेगा।
सुंदर तस्वीरें दिखेंगी
अविनाश प्रसाद, युवा फिल्म निर्देशक एवं बस्तर के कलाकार ने कहा कि "माओवादी हिंसा घटने और शांति लौटने से अब बालीवुड के फिल्मकार बस्तर में शूटिंग के लिए फिर आकर्षित हो रहे हैं। यह क्षेत्र के लिए सकारात्मक संकेत है। जल्द ही बड़े पर्दे पर बस्तर की सुंदर तस्वीरें और ज्यादा दिखेंगी।"